अपनी आवश्यकताओंको कम-से-कम रखो
याद रखो—छोटे-से चूल्हेमें एक-आध सेर कोयला या लकड़ीसे काम चल जाता है, उसमें अधिकके लिये स्थान ही नहीं होता। बड़े रसोईघरके चूल्हेमें इतने-से कोयले या लकड़ीसे काम नहीं चलता। वहाँ दस-बीस सेरकी जरूरत पड़ती है और बड़ी भट्ठी हो, वहाँ तो मनों ईंधन चाहिये एवं वही अग्नि यदि घरमें लग जाय तो सारा घर ही ईंधन बन जाता है या उससे भी बड़े रूपमें जंगलमें लगनेपर तो सैकड़ों-हजारों पेड़ोंसे भी उसकी भूख नहीं मिटती। इसी प्रकार संसारके भोग-विषयोंमें जिसकी हैसियत जितनी छोटी होती है, उतनी ही उसकी आवश्यकताएँ कम होती हैं और उसका अभाव कम होता है। जिसकी जितनी बड़ी हैसियत होती है, उतनी ही उसकी जरूरतें ज्यादा होती हैं और उतना ही उसका अभाव भी अधिक होता है। जिसका अभाव जितना अधिक है, उतनी ही उसको प्रतिकूलता है और प्रतिकूलता ही दु:ख है। ‘जितनी बड़ी आग, उतनी बड़ी ईंधनकी भूख; और जितनी बड़ी आग, उतनी ही अधिक आँच—उतना ही अधिक ताप’—इस सूत्रको याद रखो।
याद रखो—जिसके पास सांसारिक भोगपदार्थ जितने अधिक हैं, उतनी ही उसकी कामनाएँ अधिक हैं और जितनी ही कामनाएँ अधिक हैं उतना ही दु:ख अधिक है और उतना ही क्रोध, लोभ, सम्मोह, स्मृतिभ्रंश तथा बुद्धिनाशके क्रमसे सर्वनाशकी सम्भावना अधिक है।
याद रखो—जिसके जीवनमें जितनी आवश्यकताएँ अधिक होंगी, उतनी ही उनको प्राप्त करनेकी चाह अधिक होगी। जितनी चाह होगी, उतनी ही प्रवृत्ति अधिक होगी। जितनी प्रवृत्ति अधिक होगी, उतनी ही उपाधियाँ, उतनी ही परेशानियाँ, उतनी ही चिन्ताएँ, उतनी ही अशान्ति और उतने ही पापकर्म अधिक होंगे। यों जीवन अशान्तिमय, दु:खमय, चिन्तामय तथा पापमय बन जायगा। यहाँ मरते-दमतक विषाद, भय, चिन्ता, अशान्ति रहेगी तथा मृत्युके बाद नरकोंकी एवं आसुरी यन्त्रणादायक योनियोंकी प्राप्ति होगी।
याद रखो—संसारमें पेट भरने, पहनने-ओढ़ने, बैठने-सोने आदिके लिये सामग्री अवश्य चाहिये, पर यह अमुक प्रकारकी और इतनी अधिक होनी चाहिये, यह आवश्यक नहीं है। अतएव जो सभी बातोंमें सादगी रखकर अपनी स्थितिमें संतुष्ट रह कम-से-कम आवश्यकताका जीवन बिताता है, जिसे भोगोंके अभावकी पीड़ा नहीं सताती और जिसका मन भोगोंकी ओर ललचायी दृष्टिसे नहीं देखता, वह धनकी दृष्टिसे गरीब भी, मानसिक शान्तिके कारण सदा परम शान्ति तथा आनन्दका अनुभव करता है। इसके विपरीत, एक करोड़पति या सम्राट् भी, जिसके पास प्रचुर भोग-सामग्री है, पर जो अभावके चिन्तानलसे जलता रहता है, जिसका मन सदा संतप्त, असंतुष्ट और अशान्त है, वह सदा दु:खी ही रहता है।
याद रखो—वास्तवमें सुख तो आत्मा या भगवान्में ही है; शेष तो सब दु:खमय ही है। कम अभाववाला भी दु:खी रहता है और अधिक अभाववाला भी। जो आत्मा या भगवान्को नित्य सत्य आनन्दस्वरूप मानकर उनसे जुड़ा रहता है, वह बाहरसे गरीब हो या धनी, छोटी हैसियतवाला हो या बड़ी हैसियतवाला—सदा सुखी रहता है। इस दु:खमय असार संसारमें भगवान् तथा उनका नाम ही सार है, उसीमें सबको लगना-लगाना चाहिये। इस दृष्टिसे भगवान्में न लगनेवाले गरीब तथा अमीर सभी दु:खी हैं। परंतु जिनकी जरूरतें कम होती हैं, उनको सांसारिक चिन्ताओंमें दिनभर ग्रस्त नहीं रहना पड़ता। अत: वे सत्संग, आत्म-चिन्तन, भगवच्चिन्तनका कुछ अवसर पा जाते हैं और उसके फलस्वरूप उनके लिये भगवान् और उनके नामसे जुड़ जाना सहज सम्भव होता है, जो मानव-जीवनका प्रधान कर्तव्य तथा ध्येय है। अतएव जहाँतक बने अपनी आवश्यकताओंको कम-से-कम रखो, जिससे विषय-कामनाकी अग्निसे रात-दिन मन नहीं जलेगा; कुछ समय भगवच्चिन्तनकी शीतल शान्त सम्पत्तिका सुख भी प्राप्त हो सकेगा और वही मानव-जीवनकी सफलताका साधन होगा।