पुण्यकर्ममय साधुजीवन
याद रखो—मनुष्यके मनमें जैसे विषयोंका अधिक चिन्तन होता है, जैसे विचार अधिक आते हैं, वैसे ही उसके द्वारा कर्म बनते हैं और उसीके अनुरूप उसका जीवन बन जाता है। भगवत्सम्बन्धी, सर्वभूतहितकर, त्याग, संयम, वैराग्य, तत्त्वज्ञान आदि सात्त्विक विषयोंका चिन्तन तथा वैसे ही विचार अधिक आते हैं, तो वह भागवत, भक्त, प्राणिमात्रका हित-सम्पादक, त्यागी, इन्द्रिय तथा मनपर विजय प्राप्त करनेवाला, भोगोंसे विरक्त, ज्ञानी, साधु बन जाता है; उसका जीवन शान्त तथा सुखपूर्ण रहता है और उसका मानव-जीवन अपने परम ध्येय परमात्माको प्राप्तकर सफल तथा कृतार्थ हो जाता है। इसके विपरीत जो दिन-रात इन्द्रिय-भोग, सीमित स्वार्थ, वर्धनशील भोगकामना, यथेच्छ आचरण, विषयासक्ति तथा अविवेकपूर्ण चिन्तन और विचार करता रहता है, वह जीवनभर अनन्त चिन्ता, अशान्ति, दु:ख भोगता हुआ घोर विषयी, प्राणिमात्रका द्रोही, भोगोंका गुलाम, इन्द्रियों तथा मनका दास, अत्यन्त विषयासक्त, काम-क्रोध-लोभ-मोह-अभिमानके वश होकर पापकर्म करनेवाला राजस-तामसगुणयुक्त असाधु बन जाता है और मरनेके बाद आसुरी योनि तथा यन्त्रणामय नरकोंको प्राप्त होता है।
याद रखो—चिन्तन तथा विचार उन्हीं प्राणी, पदार्थ आदि विषयोंका होगा, जिनका जीवनमें अधिक संग होगा। अतएव जिससे उपर्युक्त साधु-जीवन न बनकर असाधु-जीवन बनता है, उसे कुसंग समझना चाहिये और उसका हर मूल्यपर त्याग करना चाहिये।
याद रखो—कुसंग केवल मनुष्योंका ही नहीं होता, शरीरसे होनेवाले सभी काम, इन्द्रियोंके सारे विषय, स्थान, साहित्य, व्यापार, नौकरी, अर्थ-सम्पत्ति, खान-पान, वेश-भूषा आदि—सभी कुसंग बन सकते हैं। अतएव उस स्थानसे, उस साहित्यसे, उस व्यापार-व्यवसायसे, उस पद-अधिकारसे, उस नौकरीसे, उस धन-सम्पत्तिसे, उस खान-पानसे, उस वेश-भूषासे, उन देखने-सुनने, स्पर्श करने, चखने तथा सूँघनेके प्रत्येक पदार्थसे, उस धर्म-कर्म कहलानेवाले कामसे तथा उस मानव-समूहसे, सर्वथा बचे रहो, जो तुम्हारे जीवनको राजस-तामस-असाधु बनाता है।
याद रखो—यहाँके धन-दौलत, मान-सम्मान, पद-अधिकार, यश-कीर्ति आदिका कोई महत्त्व नहीं है। ये तो प्रारब्धवश असुर-राक्षसों तथा चोर-डाकुओंके पास भी हो सकते हैं। महत्त्व तो है—दैवी सम्पदाके गुणोंका। जीवनमें उन्हींका उपार्जन, सेवन तथा संवर्धन करते रहना चाहिये। धन-दौलत, मान-सम्मान, पद-अधिकार और यश-कीर्ति प्रचुर मात्रामें प्राप्त भी हो गये—और जीवन आसुरी सम्पदासे भरा रहा, पापकर्म होते रहे तो इन सब पदार्थोंके होनेपर भी न यहाँ शान्ति-सुख मिलेगा और न परलोकमें ही। वरं जिन आसुर-मानवोंको ये सब प्राप्त हैं, वे जिस घोर अशान्ति, दिन-रातके अन्तर्दाह, अत्यन्त चिन्ताका भोग करते हैं और आठों पहर काम, क्रोध, लोभ, अभिमानके वश होकर द्रोह, दम्भ, द्वेष, चोरी, ठगी, छिपी या खुली डकैती, परनिन्दा, पर-अनिष्टसाधन, वैर, हिंसा, ध्वंस आदि मानस तथा शारीरिक पापोंमें लगे रहते हैं, उसपर विचार करनेपर तो इस स्थितिसे बुद्धिमान् पुरुषको बड़ा भय लगता है। पर नरकके कीटकी भाँति दिन-रात ऐसे ही पतित-जीवनके प्रवाहमें पड़े हुए वे लोग इस पाप-जीवनमें गौरवका अनुभव करने लगते हैं और इसको कर्तव्य मान लेते हैं। यह भविष्यको सर्वथा दु:ख-संतापमय बनानेवाली बड़ी बुरी स्थिति है। आसुरी भोग-जगत्में प्राय: यही स्थिति है।
याद रखो—जो इन धन-दौलत, मान-सम्मानादिसे रहित हैं, पर जिनका जीवन दैवी सम्पदासे युक्त है, वे जीवनमें पवित्र कर्म करते हुए अपना तथा प्राणिमात्रका निश्चय ही यथायोग्य कल्याण-साधन करते हैं। अतएव बड़ी सावधानीके साथ ऐसा ही प्रयत्न करो, जिसमें हमारा पुण्यकर्ममय साधु-जीवन बने, जिसकी मानवके ध्येयकी सिद्धिके लिये अनिवार्य आवश्यकता है।