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भगवान् और भोग

याद रखो—मनुष्यका सहज स्वाभाविक लक्ष्य है—परम शान्ति और आत्यन्तिक सुखकी प्राप्ति। वह चाहे इस लक्ष्यको व्यक्त न कर सके, पर उसका प्रत्येक विचार और प्रयत्न होता है इसीके लिये। यह होते हुए भी वह परम शान्तिके स्थानपर दारुण अशान्ति और आत्यन्तिक सुखके स्थानपर पाता है—घोर दु:ख। इसका कारण यही है कि वह शान्ति और सुखकी खोज करता है—उन्हें पाना चाहता है—अनित्य, अपूर्ण, परिवर्तनशील, अल्प और प्रतिक्षण विनाशकी ओर जानेवाले प्राकृत पदार्थों और परिस्थितियोंसे।

याद रखो—जो वस्तु अपूर्ण, अल्प और अनित्य होती है, वह कदापि शान्ति नहीं दे सकती। चित्त सदा ही पूर्णताकी कामनासे और विनाशके भयसे व्याकुल तथा अशान्त रहता है और जहाँ अशान्ति है, वहाँ सुख कहाँ? ‘अशान्तस्य कुत: सुखम्।’

याद रखो—इस अशान्त चित्तको लेकर वह सुखकी कामनासे बार-बार प्राकृत जगत‍्में ही सुख पानेका प्रयास करता है—परिणामस्वरूप उसके दु:ख विभिन्न प्रकारों और विविध रूपोंमें बढ़ते चले जाते हैं। तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाती है। कामना और तृष्णासे विवेक नष्ट हो जाता है और वह फिर बुद्धिभ्रष्ट होकर ऐसे-ऐसे कर्म करने लगता है, जिनका परिणाम अधिक-से-अधिक अशान्ति और अधिक-से-अधिक दु:खके रूपमें प्रकट होता है। प्राकृत ऐश्वर्य-अधिकार आदि भोग अन्तरमें निरन्तर अशान्तिकी भीषण आग जलाये रखते हैं—न मिलनेपर भी और बहुत मिलनेपर भी। अतएव शान्ति-सुखके लिये मनुष्य जबतक भोगसुखकी भ्रान्तिसे छूटकर नित्य, पूर्ण, असीम, सर्वथा, मधुमय भगवान‍्की खोज नहीं करता, तबतक उसकी अशान्ति और दु:खका अवसान कभी नहीं होता।

याद रखो—प्राकृत जगत‍्के जितने भी भोग हैं, वे वास्तवमें आपात-मधुर या पयोमुख विषकुम्भ (जहरसे भरे दुधमुँहे घड़े)-के सदृश हैं; अथवा भीतरके निरन्तर बढ़ते हुए भयानक घावको छिपानेवाले बाहरी चमकदार पर्देके समान हैं। अतएव इनका मोह छोड़ो और नित्य सत्य भगवान‍्को प्राप्त करनेका प्रयास करो। भगवान् नित्य अनन्त परम शान्ति और अनन्त असीम आत्यन्तिक सुखके परिमाणरहित समुद्र हैं। उनको प्राप्त करनेकी इच्छाके साथ ही शान्ति-सुख आने लगते हैं।

याद रखो—भगवान् सदा तुम्हारे अपने हैं, भोग कदापि अपने नहीं हैं। भगवान् सदा तुम्हारे साथ हैं, भोग कभी नित्यके साथी नहीं हैं। भगवान् नित्य पूर्ण तथा सुख-शान्तिस्वरूप हैं, भोग अनित्य, अपूर्ण तथा दु:ख-अशान्तिमय हैं। भगवान‍्की प्राप्तिमें कर्मकी अपेक्षा नहीं है, भोगकी प्राप्ति कर्मसापेक्ष है। भगवान‍्की प्राप्तिके प्रयाससे पाप कटने लगते हैं और नये पाप बनते नहीं, भोगप्राप्तिके प्रयासमें पाप सुरक्षित रहते हैं और नये-नये पाप बढ़ते रहते हैं।

याद रखो—वास्तवमें बुद्धिमान्, सौभाग्यशाली पुण्यजीवन और सुखी पुरुष वही है, जो भोगोंका मोह त्यागकर भगवान‍्को ही जीवनका परम लक्ष्य मानकर उन्हींका भजन करता है। जीवनके दिन बीते जा रहे हैं, मृत्यु समीप आ रही है। अतएव अशान्ति तथा दु:खके दलदलसे निकलकर नित्य सत्य भगवान‍्के भजनमें लग जाओ और मानव-जीवनको सार्थक करो।

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