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मानव-जीवनकी सफलता

याद रखो—मनुष्य भौतिक जगत‍्में भौतिक लाभोंको ही परम लाभ मानकर जब कर्म करता है, तब उसमें विलासप्रियता, इन्द्रिय-तृप्तिकी अदम्य इच्छा, भोगोंकी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई कामना—तृष्णा, मोह, लोभ, द्वेष, क्रोध, कलह, हिंसा आदि दोष उत्तरोत्तर बढ़ते रहते हैं। फलत: जीवनमें असंयम, अधीरता, अनियमितता और नित्य बढ़नेवाली घोर अशान्ति आदि आ जाते हैं और वह भौतिक उन्नतिमें सफल होते हुए भी सर्वथा असफल तथा संतप्त-जीवन ही रहता है। इसी स्थितिमें उसकी मृत्यु हो जाती है और वह अपने पूर्वकर्मजनित संस्कारोंके अनुसार ही परलोक तथा पुनर्जन्मोंमें बार-बार दु:ख भोगता तथा भटकता रहता है। वह मानव-जीवनकी बड़ी असफलता है, जो जीवनके दुरुपयोगके परिणाममें प्राप्त होती है।

याद रखो—जिस मनुष्यके जीवनका लक्ष्य अध्यात्म होता है, वह भौतिक-जगत‍्में यथायोग्य कर्तव्यपालन करता हुआ भी त्याग, इन्द्रियसुखकी इच्छाके अभाव, भोगवासनासे निवृत्ति, विवेक-वैराग्य, प्रेम, सेवा, परदु:ख-निवारणार्थ निजसुखदान, भगवान‍्में प्रीति, सर्वत्र आत्मदर्शन आदि सद‍्गुणोंसे अपनी योग्यता, स्थिति और भावनाके अनुसार सम्पन्न होता है और उसके जीवनमें सहज ही संयम, धैर्य, नियमितता आदिका विकास तथा परम शाश्वती शान्तिका प्रादुर्भाव होने लगता है और भौतिक जगत‍्की किसी भी उच्च-नीच परिस्थितिमें रहते हुए ही वह परम सुखी तथा संतुष्ट-जीवन होता है। इस स्थितिमें उसकी मृत्यु हो जाती है तो वह जीवनकी परम सफलतारूप भगवत्प्राप्ति या कैवल्य-मुक्तिको प्राप्त होता है अथवा साधन अपरिपक्व रह गया हो तो योगभ्रष्टको प्राप्त होनेवाले शुभ दैवी मानवकुलमें पुन: उत्पन्न होकर वह पूर्वाभ्यासवश साधनामें सहज ही प्रवृत्त हो जाता है और परिपक्व-साधन बनकर इस जीवनमें भगवत्प्राप्ति या मुक्तिकी उपलब्धि करता है। यही मानव-जीवनका सदुपयोग है और यही जीवनकी वास्तविक परम सार्थकता और सफलता है।

याद रखो—मानव-जीवन मिला ही है आध्यात्मिक उन्नति करते हुए भगवत्प्राप्तिरूप परम सफलताके लिये। जीवनके इस यथार्थ लक्ष्यको भूलकर जो केवल भौतिक लाभके लिये ही निरन्तर व्यस्त रहता है, वह बहुत बड़ा प्रमाद करता है और लक्ष्य-भ्रष्ट होकर अपना भविष्य बिगाड़ लेता है। ऐसे ही मानवोंके लिये भगवान‍्ने गीतामें कहा है—‘ऐसे लोग अपनेको ही श्रेष्ठ मानकर प्रमाद करते, धन तथा मानके मदमें चूर रहते, दम्भपूर्ण यज्ञ-सेवा आदिके द्वारा यजन करते हैं। ऐसे द्वेषभाव रखनेवाले क्रूर स्वभाव, पापाचारी नराधमोंको मैं (भगवान्)बार-बार सूअर, गधे, पिशाच आदिकी आसुरी योनियोंमें डालता हूँ। अर्जुन! ऐसे मूढ़ जीव जन्म-जन्ममें आसुरी योनिको प्राप्त होते हैं और मुझको (भगवान् को) न प्राप्त होकर आसुरी योनिसे भी नीच (घोर नरक आदि) गतिमें ही जाते हैं।’ यही मानव-जीवनका घोर दुष्परिणाम है।

याद रखो—इस घोर दुष्परिणामसे बचनेके लिये भगवत्कृपाका आश्रय लेकर जीवनको पवित्र आचरणोंसे तथा त्याग-वैराग्य-भक्ति-ज्ञानसे युक्त विशुद्ध आध्यात्मिक बनाना चाहिये और इस अध्यात्ममें स्थित रहकर ही अपने प्रत्येक कर्मके द्वारा भगवान‍्का पूजन करना चाहिये। इसीसे जीवन सफल होगा।

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