गीता गंगा
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भगवान‍्का प्रत्येक विधान परम मंगलमय और कल्याणप्रद है

याद रखो—भगवान‍्के मंगलविधानसे वही चीज तुमसे ली जा रही है, हटायी जा रही है, चाहे वह तुम्हें इस समय कितनी ही प्रिय आवश्यक प्रतीत होती हो, जिसका तुम्हारे पाससे चला जाना, हटाया जाना तुम्हारे भविष्यके कल्याणके लिये आवश्यक था और इसी प्रकार तुम्हें वही चीज दी जा रही है, चाहे वह तुम्हें अभी वांछनीय न हो—सर्वथा अप्रिय हो, जिससे तुम्हारा भविष्यमें कल्याण होनेवाला है। तुम इस रहस्यको नहीं जानते। पर लेन-देन करनेवाले प्रभु सर्वज्ञ हैं; वे वही करते हैं—वही वस्तु या परिस्थिति लेते-देते हैं, जिससे तुम्हारा मंगल होता हो; क्योंकि वे तुम्हारे सहज ही परम सुहृद् हैं।

याद रखो—यहाँकी चीजोंके मिलने-जानेमें परिस्थितिके परिवर्तनमें कोई भी हानि-लाभ नहीं है। यहाँ जो कुछ है—सब जानेवाला है—सब बदलनेवाला है। तुम मोहवश किसी वस्तु-परिस्थितिको अनुकूल मान लेते हो, किसीको प्रतिकूल समझ लेते हो। अनुकूलको पकड़े रखना, प्राप्त करना चाहते हो; प्रतिकूलका परित्याग करने तथा न मिलनेकी इच्छा करते हो; पर तुम्हारा यह मनोरथ तुम्हारे लिये लाभदायक है या हानिकारक—इसे तुम वैसे ही नहीं जानते, जैसे भविष्यका ज्ञान तथा वास्तविक वस्तुस्थिति न जाननेवाला छोटा अबोध शिशु लाभ-हानि नहीं जानता और अमुक वस्तुको प्रिय मानकर लेना चाहता है और अमुकको अप्रिय मानकर फेंक देना चाहता है, भले ही वह प्रिय वस्तु अहितकर हो और अप्रिय वस्तु हितकर हो। परंतु वस्तुगुण तथा बच्चेकी यथार्थ आवश्यकता एवं उसके लाभ-हानिका ज्ञान रखनेवाली माता उसकी प्रिय वस्तुको हटा देती है और अप्रियको दे देती है; क्योंकि वह ज्ञानवती तथा स्नेहमयी उसकी सुहृद् है।

याद रखो—प्रभु भी परम सुहृद्के नाते प्रत्येक विधानमें हमारे वास्तविक कल्याणका ध्यान रखते हैं। इससे उनके प्रत्येक विधानका परिणाम निश्चय ही हमारे लिये परम मंगलमय और कल्याणप्रद ही होता है।

याद रखो—तुम्हें प्रभुने जो कुछ दिया है, उसकी मंगलमयतापर विश्वास रखकर तुमको प्रभुके प्रीत्यर्थ अपने जिम्मेका काम भलीभाँति पूरा करनेका प्रयत्न करना चाहिये। तुम्हारा काम निर्दोष प्रयत्न करना है, फलकी चिन्ता नहीं करनी है। निर्दोष प्रयत्नका अर्थ यही है कि तुम्हारे किसी भी कामसे दूसरे किसीका अहित न हो, यह ध्यान रहे; कर्म-सम्पादनमें सावधानी रहे और प्रमादवश—असावधानीवश कर्ममें भूल न हो।

याद रखो—यह लोक तुम्हारा नित्य निवासगृह नहीं है, यह तो यात्रा-पथ है। तुम एक यात्री हो और तुम्हें भगवान‍्के चरणोंमें या भगवान‍्के परमधाममें जाना है, जो तुम्हारा वास्तविक घर है। यहाँके सारे सम्बन्ध कल्पित हैं, आरोपित हैं। अतएव यहाँ न तो कहीं किसी प्राणी-पदार्थ-परिस्थितिमें ममता करो, न किसीमें राग करो, न किसीमें द्वेष करो। अपनी यात्राकी स्थितिकी याद रखकर आगेकी तैयारी करो और लक्ष्यको न भूलकर निरन्तर उसी ओर चलते रहो। कहीं भी न अटको, न भटको। जो कुछ होता है, होने दो। एक बातका ध्यान रखो कि भगवान‍्की कभी विस्मृति न हो।

याद रखो—भगवान‍्की नित्य-निरन्तर स्मृति रखते हुए भगवान‍्की प्रीतिके लिये उनके मनोऽनुकूल कर्म करते रहना ही भगवान‍्की ओर चलना है। यहाँ आने, रहने, काम करने, सम्बन्धादि जोड़ने तथा कर्म करने—सबका एकमात्र उद्देश्य है। यह मानव-शरीर ही तुम्हारी आखिरी यात्रा हो और इसका अन्त भगवान‍्की प्राप्ति ही हो।

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