शास्त्रोक्त कर्म ही करने चाहिये
याद रखो—ये सब अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड भगवान्की लीला हैं। भगवान् ही सबके उपादान-कारण हैं और भगवान् ही निमित्तकारण हैं। वे अपने-आपसे ही अपने-आपमें अपने-आपके स्वरूपभूत लीला-उपादानोंसे लीला कर रहे हैं। भगवान्की यह लीला अनादि है।
याद रखो—भगवान्के तीन स्वरूप मुख्य हैं—ब्रह्म, परमात्मा और भगवान्। निर्गुण-निराकार ब्रह्म हैं, सगुण-निराकार परमात्मा हैं और सगुण-साकार भगवान् हैं। भगवान् तत्त्व-स्वरूपसे नित्य एक हैं। उनका सगुण-साकार स्वरूप भी निर्गुण-निराकार ही है; क्योंकि वह प्राकृतिक तथा पंचभूतात्मक न होकर भगवत्स्वरूप ही है।
याद रखो—एक ही भगवान् श्रीविष्णु, श्रीशिव, श्रीराम, श्रीकृष्ण, महादेवी दुर्गा आदि रूपोंमें नित्य लीलायमान हैं।
याद रखो—वे ही स्वयं चेतन-आत्मारूपमें जीवमात्रमें स्थित हैं। भगवान्की दृष्टिसे भगवान्के सिवा कुछ भी न है, न होता है, परंतु उन्हींकी लीलासे एक ही आत्मा अनन्त विविध विचित्र रूपोंमें ‘प्रकृतिस्थ’ जीवात्माके रूपमें वर्तमान है, जो प्रकृति-परवशताके कारण विभिन्न कर्म करता, विभिन्न सुख-दु:खोंको भोगता तथा विभिन्न योनियोंमें—लोक-परलोकमें भ्रमण करता है।
याद रखो—जबतक पुरुष ‘प्रकृतिस्थ’ है, तबतक उसका बार-बार जन्म-मरण होकर परलोक तथा पुनर्जन्मको प्राप्त होना अनिवार्य है। भगवान्की अनन्यभक्ति अथवा तत्त्वज्ञानसे जब प्रकृति-सम्बन्ध छूट जाता है, तब जन्म-मरणके चक्रसे मुक्ति मिल जाती है और भगवान्के स्वरूपमें स्थिति हो जाती है। यही ‘स्वस्थ’ स्थिति है।
याद रखो—मुक्तिके दो स्वरूप हैं—कैवल्य-मुक्ति या नित्य सच्चिदानन्दस्वरूप भगवद्धामकी प्राप्ति। भगवद्धामकी प्राप्तिमें भी सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सारूप्य आदि कई भेद हैं। प्रेमी भक्तगण इन मुक्तियोंमें किसीको स्वीकार न कर, प्रकृतिसे अतीत दिव्य ‘भगवत्तत्त्वमय’ प्राण, मन, देह आदिसे युक्त, प्रकृति-मुक्त स्थितिमें, नित्य-निरन्तर भगवत्सेवापरायण होकर अलौकिक भगवद्धाममें रहते हैं। ज्ञानी पुरुषके प्राण उत्क्रमण नहीं करते, उसको तत्काल ‘कैवल्य-मुक्ति’ मिल जाती है। यह ‘सद्योमुक्ति’ है। दूसरे ज्ञानपरायण तथा भक्त पुरुष देवयानमार्गसे जाकर क्रमश: मुक्त हो जाते हैं। ये भी वापस नहीं लौटते। पुण्यात्माजन पितृयानमार्गसे जाकर स्वर्गादि लोकोंमें वहाँके भोग भोगकर, पुण्य समाप्त होनेपर फिर मर्त्यलोकमें लौट आते हैं।
याद रखो—भगवान्के वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, कैलास, देवीद्वीप आदि सभी एक ही महान् भगवत्स्वरूप नित्यपरमधामके विभिन्न स्वरूप हैं, जो अनादि हैं तथा नित्य हैं। भगवान्की दो विभूतियाँ हैं—एकपाद्विभूति और त्रिपाद्विभूति। अनन्तकोटि विभिन्न ब्रह्माण्डोंसे युक्त प्रकृति एकपाद्विभूतिमें है। भगवान्का दिव्य परमधाम त्रिपाद्विभूतिमें है। यह प्रकृतिसे सर्वथा परे, इस लोकके सूर्य, चन्द्र और अग्निको सूर्यत्व, चन्द्रत्व और अग्नित्व प्रदान करनेवाला, अनन्तकोटि दिव्य सूर्य, चन्द्र अग्निकी ज्योतिर्मय शीतल स्निग्ध प्रभासे विभूषित, प्रलयहीन, अमृत, अनन्त,शाश्वत, शुद्ध, सत्त्वमय, अज, अक्षर तथा परम सौन्दर्यनिकेतन परमानन्दधाम है। वह सभी दशाओं, स्थितियों, आवरणोंसे मुक्त है। अतएव प्रकृति-राज्यसे सर्वथा अतीत विशुद्ध भगवत्-राज्यमें प्रवेश होनेपर ही इनका रहस्य, रूप और तत्त्व समझमें आ सकता है। प्राकृतिक बुद्धि वहाँतक पहुँच ही नहीं सकती।
याद रखो—पापका आचरण करनेवाले लोग नरकोंमें जाते हैं और वहाँ ‘यातना-शरीर’ पाकर भाँति-भाँतिकी यन्त्रणा भोगते हैं। नरक रूपक या कल्पना नहीं हैं—सत्य हैं। नरक-भोगके अनन्तर या पहले ही कर्मानुसार पापीजनोंको आसुरीयोनि—कूकर-सूकर, शृगाल आदि योनियोंमें जन्म लेकर वहाँ दु:ख भोगने पड़ते हैं। मनुष्य-जन्म होता है तो वहाँ भी उन पापाचारियोंको नित्य रोगग्रस्त तथा विविध अभावोंसे पीड़ित रहना पड़ता है।
याद रखो—पापकर्मा जीव कर्मवश प्रेत होते हैं। यद्यपि प्रेतोंके नामपर ठगी, दम्भ, जालसाजी बहुत चलती है, पर वास्तवमें प्रेतयोनि सत्य तथ्य है और उससे छुटकारेके उपाय हैं—गायत्री-पुरश्चरण, श्रीमद्भागवतका सप्ताह-पाठ, भगवान् शंकरकी उपासना, भगवन्नाम-जप-कीर्तन आदि। मृतक-श्राद्ध विधिवत् अवश्य करना चाहिये। पिण्डदान, नियमित श्राद्ध, तर्पण आदिसे भी प्रेतयोनिसे छुटकारा मिल जाता है। कम-से-कम, वहाँके कष्ट कम हो जाते हैं और प्रेतत्वकी अवधि घट जाती है। श्राद्ध-तर्पण और पिण्डदानादि न करनेपर प्रेतयोनिकी प्राप्ति, उसकी अवधि-वृद्धि और यन्त्रणाओंकी वृद्धि होती है।
याद रखो—इसी प्रकार ‘प्रेतबाधा’ भी होती है—यद्यपि इस क्षेत्रमें भी मिथ्यावाद, ढोंग, ठगी, बदमाशी बहुत चलती है। कहीं हिस्टीरिया आदि रोगोंको भी प्रेतबाधा मान लिया जाता है। तथापि प्रेतबाधा सचमुच होती भी है। उसका निवारण अखण्ड भगवन्नामकीर्तन, भागवतपाठ, गायत्रीजप आदिसे होता है।
याद रखो—मनुष्यकी उच्च-नीच गतिमें, परलोक-पुनर्जन्मकी विविधतामें और सुख-दु:खादिकी प्राप्तिमें उसके अपने किये हुए कर्म ही कारण हैं। अतएव सदा-सर्वदा शास्त्रोक्त वैध कर्म ही करने चाहिये। मन, वाणी और शरीरसे सभी ऐसे सत्कर्म करने चाहिये, जो किसी भी जीवका अनिष्ट न करनेवाले हों, सबका हित करनेवाले हों और शास्त्रोक्त हों। जिस कर्मसे दूसरोंका अहित होता है, उससे अपना हित कभी नहीं हो सकता।
याद रखो—कर्मका फल यहाँके बीज-फल-न्यायके अनुसार ही होता है। थोड़ा-सा बीज बोते हैं—उसके फलस्वरूप अनन्तगुना अनाज पैदा होता है। इसी प्रकार छोटे-से बुरे कर्माेंका फल दीर्घकालीन नरक या नारकी योनिकी प्राप्ति एवं थोड़े-से पुण्य-कर्मोंका फल दीर्घकालीन स्वर्गादि-सुख तथा शुभ योनियोंकी प्राप्ति होती है। अतएव मनुष्यको सदा-सर्वदा सत्कर्म ही करने चाहिये।
याद रखो—सत्कर्म यदि निष्कामभावसे, भगवत्प्रीत्यर्थ, भगवान्की पूजाके स्वरूपमें किये जाते हैं तो उनका फल मोक्ष या भगवत्प्राप्ति होता है। अतएव प्रत्येक सत्कर्मके द्वारा भगवान्की पूजा करनेका भाव रखना चाहिये।
याद रखो—भूर्लोक, भुवर्लोक, महर्लोक, जनलोक और ब्रह्म या सत्यलोक ऊपरके हैं तथा अतल, तलातल, वितल, सुतल, महातल, रसातल और पाताल नीचेके लोक हैं। भुवर्लोकमें ही स्वर्ग, पितृलोक, यमलोक आदि हैं। इन सबकी स्वरूप-स्थितिमें उच्च-नीचका महान् अन्तर है तथापि ये हैं सभी प्रकृतिराज्यमें ही। ब्रह्मलोकतक पहुँचा हुआ प्राणी भी वापस आ सकता है। केवल भगवत्प्राप्त पुरुष—‘कैवल्य मोक्ष’ को या ‘भगवान्के परमधाम’ को प्राप्त पुरुष ही वापस जन्म-मृत्युके चक्रमें नहीं लौटता।
याद रखो—एक मनुष्य-शरीर ही ऐसा है, जो मोक्ष या भगवत्प्राप्तिके लिये ही मिलता है। नारकी प्राणी भी मनुष्ययोनिमें आकर कर्मफलरूप दु:ख भोगता हुआ भी यदि भगवान्का भजन करता है और प्रत्येक फलभोगमें भगवान्का मंगल-विधान मानकर प्रसन्न होता एवं प्रत्येक छोटे-बड़े सत्कर्मको भगवान्की प्रीतिके लिये करता है तो वह भी भगवान्को प्राप्त होकर मनुष्य-जीवनको सफल करता है।
याद रखो—मानव-जीवन भोगोंके लिये है ही नहीं; मानव-जीवनको जो भोगोंमें खो देता है—भोगोंके अर्जन तथा उनके उपभोगमें—वह निरन्तर चिन्ताग्रस्त, अशान्त-चित्त तो रहता ही है, भोगासक्तिके कारण नये-नये प्रच्छन्न पाप करता है, जिनका फल उसके भविष्यको बिगाड़ देता है। वह बार-बार नरकों तथा आसुरी योनियोंमें जाता है। अतएव मानव-जीवनका प्रत्येक क्षण केवल भगवान्की सेवामें ही लगना चाहिये, भोग-सेवनमें कदापि नहीं, तभी भगवत्प्राप्ति होगी, जो मानव-जीवनकी परम और चरम सफलता है।