भगवान्की उपासनाका यथार्थ स्वरूप
याद रखो—समस्त विश्वके सम्पूर्ण प्राणी भगवत्स्वरूप हैं, यह जानकर सबको बाहरकी स्थितिके अनुसार हाथ जोड़कर प्रणाम करो या मनसे भक्तिपूर्वक नमन करो। किसी भी प्राणीसे कभी द्वेष मत रखो, किसीको कटु वचन मत कहो, किसीका मन मत दुखाओ और सबके साथ आदर, प्रेम तथा विनयसे बरतो। यह भगवान्के समीप बैठनेकी एक उपासना है।
याद रखो—तुम्हारे पास विद्या-बुद्धि, अन्न-धन, विभूति-सम्पत्ति है—सब भगवान्की सेवाके लिये ही तुम्हें मिली है। उसके द्वारा तुम गरीब-दु:खी, पीड़ित-रोगी, साधु-ब्राह्मण, विधवा-विद्यार्थी, भय-विषादसे ग्रस्त मनुष्य, पशु, पक्षी, चींटी—सबकी यथायोग्य सेवा करो—उन्हें भगवान् समझकर निरभिमान होकर उनकी वस्तु उनको सादर समर्पित करते हुए। यह भी भगवान्के समीप बैठनेकी एक उपासना है।
याद रखो—तुम्हें जीभ मिली है—भगवान्का दिव्य मधुर नाम-गुण-गान-कीर्तन करनेके लिये और कान मिले हैं—भगवान्का नाम-गुण-गान-कीर्तन सुननेके लिये। अतएव तुम जीभको निन्दा-स्तुति, वाद-विवाद, मिथ्या-कटु, अहितकर-व्यर्थ बातोंसे बचाकर नित्य-निरन्तर भगवान्के नाम-गुण-गान-कीर्तनमें लगाये रखो और कानोंके द्वारा बड़ी समुत्कण्ठाके साथ उल्लासपूर्वक सदा-सर्वदा भगवान्के नाम-गुण-गान-कीर्तनको सुनते रहो। यह भी भगवान्के समीप बैठनेकी एक उपासना है।
याद रखो—तुम्हें मन मिला है सारी वासना-कामनाओंके जालसे मुक्त होकर समस्त जागतिक स्फुरणाओंको समाप्तकर भगवान्के रूप-गुण-तत्त्वका मनन करनेके लिये और बुद्धि मिली है—निश्चयात्मिका होकर निरन्तर भगवान्में लगी रहनेके लिये। यही मन-बुद्धिका समर्पण है। भगवान् यही चाहते हैं। इसलिये मनके द्वारा निरन्तर अनन्य चित्तसे भगवान्का चिन्तन करो और बुद्धिको एकनिष्ठ अव्यभिचारिणी बनाकर निरन्तर भगवान्में लगाये रखो। यह भी भगवान्के समीप बैठनेकी एक उपासना है।
याद रखो—तुम्हें शरीर मिला है भगवद्भावसे गुरुजनोंकी, रोगियोंकी, असमर्थोंकी आदरपूर्वक सेवा-टहल करनेके लिये, देवता-द्विज-गुरु-प्राज्ञके पूजनके लिये, पीड़ितकी रक्षाके लिये और सबको सुख पहुँचानेके लिये। अतएव शरीरको संयमित रखते हुए शरीरके द्वारा यथायोग्य सबकी सेवा-चाकरी-रक्षा आदिका कार्य सम्पन्न करते रहो। यह भी भगवान्के समीप बैठनेकी एक उपासना है।
याद रखो—तुम्हें मनुष्य-जीवन मिला है केवल श्रीभगवान्का तत्त्वज्ञान, भगवान्के दर्शन या भगवान्के दुर्लभ प्रेमकी प्राप्तिके लिये। यही मानव-जीवनका परम साध्य है और इसी साध्यकी प्राप्तिके लिये सतत सावधान रहते हुए यथायोग्य पूर्ण प्रयत्न करते रहना ही मनुष्यका परम कर्तव्य है। इस कर्तव्यपालनमें सावधानीसे लगे रहना ही वास्तविक उपासना है। इसके विपरीत भोगों—सुखकी मिथ्या आशा-आस्था-आकांक्षाको लेकर जो प्रयत्न करना है, वह तो प्रमाद है और आत्महत्याके समान है। अतएव भोग-सुखकी मिथ्या आशा-आकांक्षाका सर्वथा त्याग करके मानव-जीवनको सदा-सर्वदा सब प्रकारसे भगवत्प्राप्तिके साधनमें, अपनी स्थिति और रुचिके अनुसार ज्ञान-कर्म-उपासनारूप किसी भी उपासनामें लगाये रखो। यही मानव-जीवनका सदुपयोग है और इसीमें मानव-जीवनकी सफलता है। यही भगवान्के समीप बैठना है और यही यथार्थ उपासना है।