विश्वात्मा भगवान्की सच्ची पूजा
याद रखो—सारा चराचर जगत् एक ही भगवान्की अभिव्यक्ति है। एक ही भगवान् इन सबके रूपमें प्रकट हो रहे हैं तथा सबमें नित्य एक ही आत्मा विराजमान है। जैसे एक ही शरीरके पृथक्-पृथक् बहुत-से अंग-उपांग होते हैं और उनके नाम तथा काम भी अलग-अलग होते हैं, परंतु सबमें आत्मा एक ही होता है, उनमेंसे किसीका भी सुख-दु:ख आत्माका ही सुख-दु:ख होता है; वैसे ही सारे विश्वके सब चराचर प्राणी एक ही भगवान्के अंग-उपांग हैं; उसीके सनातन अभिन्न अंश हैं। यह समझकर सभीको सुख पहुँचाओ, सभीका हित करो और सभीको अपने-अपने कार्यमें सुखपूर्वक लगे रहने दो।
याद रखो—जब तुम्हारे अंदर सबके प्रति आत्मभावना होगी—एकात्मताका अद्वैत-भाव होगा, तब तुम्हारी अहंता और ममता (‘मैं’ और ‘मेरा’) सीमित नहीं रहेगी। अतएव सहज ही तुम देह-बुद्धिसे छूट जाओगे, फिर इस सीमित ‘मैं-मेरे’ के लिये दूसरोंको पृथक् समझकर उनका कभी अहित नहीं चाहोगे, उनको दु:ख देना नहीं चाहोगे। वरं उनका हित तथा सुख तुम्हारा ही हित-सुख है—यह समझकर सबके हित तथा सुखकी ही बात सोचोगे और वही करोगे। फिर तुम्हारे अंदर सीमित इच्छा नहीं रहेगी, न कहीं किसी विषयमें राग (आसक्ति) रहेगी, अपनी हानिका भय नहीं रहेगा और कामनापर चोट लगनेसे उत्पन्न होनेवाले क्रोधका कभी उदय नहीं होगा। तुम ‘वीतराग-भय-क्रोध’ होकर भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो जाओगे। वस्तुत: जो ‘वीत-राग-भय-क्रोध’ है, वही स्थितप्रज्ञ है और जो ‘विगतेच्छा-भयक्रोध’ है, वही सदा ‘मुक्त’ है।
याद रखो—राग, इच्छा, भय, क्रोध तभी होते हैं, जब तुम अपनेको ‘मैं’-‘मेरे’ की छोटी-सी सीमामें आबद्ध कर रखते हो। तभी अपनेको सबसे पृथक्, अपने ‘स्व’ को एक छोटे दायरेमें, अपने ‘स्वार्थ’ को एक छोटे घेरेमें लाकर, दूसरे सबको पराया—दूसरा मानने लगते हो, फिर छोटे-छोटे अभिमान—शरीरका, देशका, जातिका, वर्गका, मतका, प्रान्तका, भाषाका, मान-प्रतिष्ठाका, सुख-आरामका—तुम्हें क्रमश: संकुचित-से-संकुचित सीमामें ले जाकर भयभीत कर देते हैं। तुम अपने माने हुए इन पदार्थ-परिस्थितियोंकी रक्षाके लिये, दूसरे इनका विनाश कर देंगे—इस प्रकारकी कल्पना करके सबपर संदेह करने तथा सबसे भयभीत होने लगते हो और बदलेमें दूसरे भी इसी प्रकारकी परिस्थितिमें परिणत होकर तुमपर संदेह करने और तुमसे डरने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि परस्पर शंका बढ़ती है, आँखें बदल जानेसे दोष दिखायी देने लगते हैं और ईर्ष्या, द्वेष, घृणा तथा वैर बढ़ जाते हैं, जो हिंसाके रूपमें प्रकट होकर ऐसे अवांछनीय कुकर्म करा बैठते हैं, जिनसे अपना तथा दूसरोंका एवं बिना जाने-पहचाने हुए असंख्य निर्दोष प्राणियोंका बहुत बड़ा विनाश हो जाता है। इससे मानव-जीवनकी सफलतामें ही केवल बाधा नहीं पड़ती; जीवनभर अशान्ति, दु:ख तथा अभावजनित संताप सहते हुए और अन्तिम श्वासतक भीषण चिन्ताकी आगमें जलते हुए मरना पड़ता है एवं मरनेके बाद कष्ट-क्लेशमयी आसुरी योनि तथा भीषण यन्त्रणादायक नरकोंकी प्राप्ति होती है।
याद रखो—कर्मके फलसे प्राणी बच नहीं सकता। अतएव सबमें एक भगवान् अथवा एक ही आत्माको देखकर सबका हित करो, सबको सुख पहुँचाओ, सबको सम्मान-दान करो, सबको प्रेम-दान करो, सबको अभय प्रदान करो। कोई भी प्राणी तुम्हारे द्वारा कभी न अपमानित हो, न सताया जाय, न भय प्राप्त करे, न उद्विग्न हो और न किसी प्रकार अहित प्राप्त करे। अपने विचार-व्यवहार-कार्य—सबको विनम्रता, मधुरता, प्रेम, सत्य तथा हितसे भरे रखो। तुम्हारा मंगल होगा, दूसरोंका मंगल होगा, विश्वका मंगल होगा; क्योंकि इसीसे विश्वात्मा भगवान्की सच्ची पूजा होगी।