भगवान्पर निर्भरशील बनिये
याद रखो—जबतक मनुष्य भगवान्पर, उनकी अहैतुकी कृपापर निर्भर न होकर अपने तुच्छ अभिमानपर निर्भर करता है, अपने पुरुषार्थके भरोसे सिद्धि प्राप्त करना चाहता है, तबतक पद-पदपर उसे अभिमानके द्वारा असफल होना पड़ता है, निराशा, विषाद-शोकका अनुभव करना पड़ता है। सफल वही होता है, जो भगवान्पर, भगवत्कृपापर निर्भर करता है। भगवत्कृपा उसे समस्त बड़े-बड़े विघ्नोंसे पार लगा देती है, भगवत्कृपा उसे परम सिद्धि प्राप्त करा देती है।
याद रखो—भगवान्पर निर्भर होनेका अर्थ हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ जाना नहीं है—‘भगवान् अपने-आप ही सब कर देंगे, मुझे कुछ नहीं करना है’—उद्यमरहित होकर पड़े रहना नहीं है।
याद रखो—भगवान्पर निर्भर करनेवाला पुरुष अहंकार-शून्य होता है, सिद्धि-असिद्धिकी चिन्ता नहीं करता, फलानुसंधान-परायण नहीं होता। वह निर्विकार रहता हुआ ही धृति तथा उत्साहके साथ भगवत्सेवाके भावसे निरन्तर भगवान्के अनुकूल कार्य करता रहता है। वह अपने कर्तव्य-पालनमें तनिक भी त्रुटि नहीं करता, पूरा तन-मन लगाकर भगवत्प्रीत्यर्थ सत्कर्म-परायण रहता है; अपनेको भगवान्का यन्त्र समझता है और इससे उसमें सात्त्विकताकी वृद्धि होनेके कारण कर्म करनेकी शक्ति भी बढ़ जाती है, क्योंकि उसे फलकी प्रतिकूलता-अनुकूलताका कोई ध्यान नहीं रहता, इससे न तो उसमें निराशा आती है और न भोग-प्राप्तिजनित मिथ्या हर्षोन्मत्तता।
याद रखो—निर्भरशील साधक तमोगुणसे अभिभूत न होनेके कारण कभी अकर्मण्य नहीं होता। वह अपने भगवान्से अन्य कुछ भी नहीं चाहता, केवल यही चाहता है कि उसकी विश्वासपूर्ण निर्भरतामें तनिक भी कमी न हो, निर्भरा भक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहे। उसके लिये उसके भगवान्को कभी कुछ भी चिन्ता न करनी पड़े। बस, यन्त्रकी तरह यन्त्रीके अनुकूल आचरण नित्य-निरन्तर सहज उत्साह-उल्लासपूर्ण हृदयसे होता रहे। कभी इस अभिमानकी भी कल्पना न जगे कि ‘मैं भगवत्प्रीत्यर्थ कार्य करता हूँ, भगवान्पर निर्भर हूँ।’ वस्तुत: निर्भरशील पुरुषसे अभिमानपूर्वक कोई कार्य होता ही नहीं। उसकी निर्भरता सहज होती है और उसका प्रत्येक कार्य सहज स्वाभाविक होता है—कठपुतलीकी भाँति।
याद रखो—निर्भरशील पुरुषको कभी असंतोष नहीं होता। असंतोष होता है अभावकी अनुभूतिमें, अभावपूर्तिकी कामनामें; निर्भरशील पुरुष किसी अभावका अनुभव करता ही नहीं, अत: उसे अभावपूर्तिकी कामना भी नहीं होती। उसे नित्य भाव-स्वरूप भगवान्की स्मृति बनी रहती है और उसके द्वारा भगवत्सेवाके कार्य होते रहते हैं।
याद रखो—मनुष्य जब भगवान्का हो जाता है, उनके हाथोंमें विश्वासपूर्वक बिना शर्तके अपनेको सौंप देता है, बस, अपने-आप ही उसमें निर्भरता आ जाती है। न उसे अपने पुरुषार्थका ज्ञान होता है, न तन-मनके आरामका। उसकी कोई भी शर्त नहीं होती। वह निश्चिन्त होकर भगवत्कैंकर्यमें प्रवृत्त हो जाता है। उसका प्रत्येक कार्य ही भगवत्सेवाके लिये होता है, भगवत्सेवा-स्वरूप ही होता है। उसके मनमें न तो अपने लिये कुछ पानेकी आवश्यकता रहती है, न कभी कुछ पानेकी कामना ही होती है।
याद रखो—यों तो अनन्त-अनन्त विश्व-ब्रह्माण्डका सारा कार्य भागवती शक्तिसे ही सम्पन्न होता, पर निर्भर भक्तके तो छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े सारे कार्योंका भार भगवान् स्वयं वहन करते हैं। उसको कब क्या चाहिये, इसकी जानकारी भी भगवान् रखते हैं और पूर्ति भी भगवान् ही करते हैं। योगक्षेमकी सारी जिम्मेवारी वे ले लेते हैं तथा वास्तवमें असली ‘योग’ और असली ‘क्षेम’ का स्वरूप भगवान् ही जानते हैं। वे ही योग-क्षेमका स्वरूप निश्चय करते हैं और वे ही उसे पूर्ण करते हैं। कैसा सौभाग्य है उस निर्भरशील पुरुषका!