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संत बनो, कहलाओ मत

याद रखो—जैसे सूर्यमें प्रकाश तथा तेज सहज स्वाभाविक है, जैसे जलमें द्रवता और शीतलता स्वाभाविक है, जैसे चन्द्रमामें चाँदनी और सुधारसमयता स्वाभाविक है, वैसे ही संत, भक्त और भगवत्परायण सात्त्विक पुरुषोंमें दैवी सम्पत्तिके गुण सहज स्वाभाविक होते हैं। उनमें उन गुणोंको लेकर अभिमान नहीं होता। ‘मैं सत्यवादी हूँ’—सहज सत्यभाषी संत ऐसा नहीं मानता; ‘मुझमें क्रोध नहीं है’, ‘मैं सहिष्णु तथा क्षमाशील हूँ’—अक्रोधी क्षमावान् पुरुष ऐसा नहीं मानता। ये सद‍्गुण उनके जीवनके स्वरूप बन जाते हैं।

याद रखो—जिनमें अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, तप, क्षमा, प्रेम, सहिष्णुता, उदारता, परदु:खकातरता, दया, अस्तेय, अपरिग्रह, त्याग, वैराग्य, ईश्वरमें दृढ़ विश्वास, आत्मज्ञान, अभय, निश्चिन्तता, आनन्दमयता आदि गुण हैं तथा बढ़ रहे हैं, वे ही वास्तवमें संत, महात्मा या भक्त हैं। जो संत कहलाते हैं, अपनेको संत बतलाते हैं, दूसरोंको दैवी गुणोंका उपदेश करते हैं, परमार्थ तथा संयमकी शिक्षा देते हैं, अपनेमें दैवी गुणोंके होनेकी घोषणा करते हैं, पर वास्तवमें जिनमें ये गुण नहीं हैं, वे न संत हैं, न भक्त हैं और न महात्मा ही।

याद रखो—जिनके पास वास्तवमें धन-सम्पत्ति है, वे यदि धनी नहीं भी कहलाते या दरिद्र ही माने जाते हैं, तो भी वे धनी ही हैं; क्योंकि उनके पास धन है। पर जो धनी, सम्पन्न कहलाते हैं, जिनके लिये लोगोंमें ऐसी धारणा भी है कि ये धनी हैं और जो व्यवहार भी धनीका-सा करते हैं, लेकिन जिनके पास धन नहीं है, वे वास्तवमें निर्धन ही हैं। इसी प्रकार जिनके जीवनमें संतके स्वाभाविक दैवी गुण वर्तमान हैं, उन्हें चाहे कोई संत कहे या माने अथवा न कहे न माने, वरं कोई चाहे उन्हें असंत भी कहते—मानते हों, तो भी वे किसीके कहे या माने जानेके अनुसार असंत नहीं हो सकते।

याद रखो—इसीलिये संत या भक्त कहलानेकी या संत या भक्तके नामसे परिचित होनेकी चेष्टा मत करो। संतके गुण या भक्तिको, जो भगवदीय दैवी गुणोंका ही दूसरा नाम है—निरन्तर अपने जीवनमें लानेकी चेष्टा करो। दूसरे क्या कहते हैं, क्या मानते हैं, इसकी ओर मत देखो। केवल अपनी ओर देखो और सावधानीके साथ देखो—दैवी सम्पत्तिके गुण उत्तरोत्तर बढ़कर सहज जीवनरूप बन रहे हैं या नहीं। यदि दैवी सम्पत्तिके गुण बढ़ रहे और सहज जीवनरूप बन रहे हैं तो उन्हें छिपाते हुए और भी बढ़ाते रहो। अपने सद‍्गुणोंका ढिंढोरा पीटना तो उनका तिरस्कार करके लौकिक सम्मानकी भूखको, जो गिरानेवाली है, बढ़ाना है। यह तो करो ही मत। तुम्हारे अंदर कोई ये गुण बतावे और सम्मान दे तो उसे स्वीकार न करो। दैवी सम्पत्तिके गुणोंके मूल्यके रूपमें यदि सम्मान स्वीकार न कर लिया और सम्मानकी लालसा कहीं बढ़ चली तो दैवी सम्पत्तिके गुण घटने लगेंगे, लुप्त होने लगेंगे और उनके स्थानपर दम्भ आकर लोकरंजनमें जीवनको लगा देगा। जीवनमें पतनकी अशुभ घड़ी आ जायगी। अतएव सावधान रहो।

याद रखो—मान, बड़ाई, सत्कार, पूजा, विषय-भोगोंकी सुविधा तथा कामना आदि सब विघ्न हैं—राहके लुटेरे हैं और दैवी सम्पत्तिका हरण करनेके लिये ही आया करते हैं। इनसे सदा बचते रहो। बड़ी सावधानीसे इन्हें हटाते रहो। जरा-सा भी इनको आश्रय दिया कि फिर तो ये अपना प्रभुत्व जमाकर सारा अध्यात्म-धन छीन लेंगे। अतएव संत बनो, कहलाओ मत; भक्त बनो, कहलाओ मत—इसीमें कल्याण है।

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