भगवत्प्राप्तिका मार्ग
याद रखो—मनुष्य-जीवनका एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति है—यह बात सैकड़ों-हजारों बार कही-सुनी जाती है, पर भगवत्प्राप्तिके मार्गपर बहुत कम लोग निष्ठाके साथ चलते हैं। जो स्वयं नहीं चलते और चलनेकी बात कहते-सुनते हैं; उनकी देखा-देखी और लोग भी कहना-सुनना सीख लेते हैं—चलना नहीं सीखते। इसलिये भगवत्प्राप्ति केवल वाणीका विलासमात्र रह जाता है।
याद रखो—मनुष्योंके समुदायका नाम ही समाज है। यदि समाजका प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनके उद्देश्यको समझकर लक्ष्यको सामने रखकर दूसरेकी प्रतीक्षा किये बिना भगवत्प्राप्तिके मार्गपर चलने लगे तो समाज अपने-आप ही चलने लगेगा। इसलिये कहने-सुननेकी बात छोड़कर स्वयं करना चाहिये।
याद रखो—जब किसी कामका मन दृढ़ निश्चय करता है, तब मनुष्य उस कामको करने लगता है। इसलिये कलपर न छोड़कर आज ही निश्चय करो कि मुझको आज ही अभीसे ही भगवत्प्राप्तिके मार्गपर चलना शुरू करना है। सबसे पहले जीवनका लक्ष्य भगवत्प्राप्ति है, इसका निश्चय करो। इस ‘निश्चय’ का अर्थ ही है जीवनको भगवान्के सम्मुख कर देना। अभी हमारा जीवन भगवान्के विमुख है और भोगोंके सम्मुख है। इसको घुमाकर भगवान्के सम्मुख कर देना है, फिर एक पैंड भी आगे चलेंगे तो भगवान्की ओर ही चलेंगे।
याद रखो—भगवान्के सम्मुख होकर खडे़ नहीं रहना है, उनकी ओर उनकी प्राप्तिके मार्गपर सावधानीसे सतत चलना है। इसीका नाम साधन है। भगवत्प्राप्तिके साधनमें तन-मन-वचनके सब कार्य भगवत्प्रीत्यर्थ करने हैं और भगवान्के प्रीत्यर्थ वही कर्म होते हैं, जो भगवान्के अनुकूल होते हैं। अतएव भगवान्के अनुकूल कर्माेंका आचरण करना है। इससे प्रतिकूलका त्याग तो आप ही हो जायगा।
याद रखो—भगवान्के अनुकूल कार्योंमें प्रधान तो है—प्रत्येक कर्ममें भगवत्प्रीतिकी भावना; और वे कार्य हैं—किसी प्राणीकी हिंसा न करके, किसीको कष्ट न पहुँचाकर, किसीका अहित न करके सबका पालन करना, सबको सुख पहुँचाना, सबका हित करना, किसीको शाप, गाली न देकर—किसीकी निन्दा-चुगली न करके झूठ न बोलकर व्यर्थकी चर्चा न करके, जिससे दूसरेका उपकार हो, उसके गुणोंकी सच्ची प्रशंसा हो,जो सत्य हो तथा जो निर्दोष एवं आवश्यक हो, ऐसे वचन बोलना या मौन रहकर निरन्तर भगवान्के नामका रटन तथा उनके स्तोत्रोंका पाठ करते रहना। किसीका अनिष्ट-चिन्तन न करके, शोक-विषाद न करके, भोगेच्छा न रखकर, क्रूर भावका त्याग कर, विषय-चिन्तनको छोड़कर सबका इष्ट-चिन्तन करना, मनमें प्रसन्न रहना, त्यागकी इच्छा रखना, सौम्य-दयामय भाव रखना और निरन्तर भगवच्चिन्तन करना तथा भगवान्का नाम, जप, कीर्तन, भजन, सत्संग, ध्यान, अनाथ-दु:खियों-पीड़ितोंकी सेवा, सच्चिन्तन, स्वाध्याय, गुरुजनोंका पूजन करना—ये सभी साधन भोग-कामनासे न करके भगवत्प्रीत्यर्थ करनेसे भगवत्-प्राप्तिके प्रत्यक्ष साधन बन जाते हैं। इनके करनेसे सदाचारमें प्रीति, भोगोंमें वैराग्य, अन्त:करणकी शुद्धि, दैवी सम्पत्तिका स्वभाव, भगवान्के तत्त्वज्ञानका उदय और भगवत्प्रेमका प्रादुर्भाव हो जाता है। यही भगवत्प्राप्तिका प्रशस्त तथा निश्चित मार्ग है।
याद रखो—मार्ग तो जान लिया, पर कार्य सफल होगा मार्गपर चलनेसे ही। अतएव आज ही चलना शुरू कर दिया जाय। इसमें न आलस्य करना है, न प्रमाद।
याद रखो—जीवन चला जा रहा है—मृत्यु समीप आ रही है। यदि यों ही प्रमादमें, भोग-लिप्सामें, विषय-चिन्तनमें जीवन बीतता रहा तो मानव-जीवन असफलतामें ही नष्ट हो जायगा। फिर पश्चात्तापके सिवा कोई उपाय नहीं रह जायगा। अतएव इस कार्यमें जरा भी विलम्ब नहीं करना है।