भगवत्प्राप्तिका साधक ही यथार्थ मानव है
याद रखो—मानव वास्तवमें वही है, जिसने मानव-जीवनके वास्तविक एकमात्र लक्ष्य भगवत्प्राप्ति या आत्म-साक्षात्कारकी ओर चलना शुरू कर दिया है और जो जागतिक राग-द्वेषसे बचकर सावधानीके साथ सीधा आगे बढ़ रहा है। जो मानव ऐसा नहीं है, भोगासक्त है, इन्द्रियोंके विषयोंकी तथा जागतिक पद-अधिकार, धन-ऐश्वर्य, मान-सम्मान आदिकी प्राप्तिको ही जीवनका उद्देश्य मानता है और इन्हींकी प्राप्तिके साधनमें लगा हुआ दिन-रात अशान्ति, चित्त-विभ्रान्तिका अनुभव करता रहता है, वह वास्तवमें मानव नहीं है; मानव-रूपमें विचरण करनेवाला पशु आदि प्राणी है। जो दिन-रात भोगोंकी प्राप्ति, संरक्षण-संवर्धनके लिये घोर आसुर तथा राक्षस-भावको ग्रहण करके वैर-हिंसा, चोरी-डकैती, असत्यभाषण-व्यवहार, अभिमान-अहंकार, दूसरोंके अपमान-अपवाद तथा स्वत्वापहरणमें लगा हुआ राक्षसी लूट-पाट, मार-काट, विध्वंस-विनाश आदिमें प्रवृत्त है, वह मानव-शरीरमें प्राप्त सत्-साधनोंका दुरुपयोग करके मृत्युके अन्तिम क्षणतक सहस्र-सहस्र दुश्चिन्ताओंसे घिरा हुआ दु:खपूर्वक मरता है और मरनेके पश्चात् बार-बार घोर आसुरी योनियों तथा भीषण नरक-यन्त्रणाओंको प्राप्त होता है।
याद रखो—मानव-जीवनका एक-एक क्षण मूल्यवान् है और वह है—भगवत्सेवा तथा भगवत्स्मृतिके लिये। इस बातको भूलकर जो मानव उपर्युक्त पशु तथा असुर-राक्षस-पिशाच-जीवनमें आयु बिताता है, वह घोर मूर्ख है और वास्तवमें अपने ही हाथों अपने लिये भीषण नरकगर्त खोदकर उसमें गिरता है।
याद रखो—प्रत्येक श्वास जीवनको मृत्युकी ओर ले जा रहा है। निश्चित होनेपर भी पता नहीं, कब मृत्यु आ जाय। इसलिये तनिक भी विलम्ब न करके वास्तविक मानव बनकर भगवत्प्राप्तिके मार्गपर चलना शुरू कर देना चाहिये। इसीसे अर्जुनको भगवान् श्रीकृष्णने ‘सर्वकालमें भगवत्स्मरण’ के लिये (सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर) आज्ञा दी थी। भगवत्प्राप्तिके मार्गपर चलना आरम्भ हो गया तब समझा जाय, जब जीवनमें भगवदनुकूल विचार, चिन्तन, संकल्प, कार्य, व्यवहार, आचरण आदि होने लगें; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अलिप्सा, प्रेम, दया, त्याग, तितिक्षा, सेवा, सौहार्द, संयम, सदाचार, भोगोंमें वैराग्य, भगवच्चरणोंमें अनुराग, जागतिक प्राणी-पदार्थ-परिस्थितियोंमें ममता-आसक्तिका अभाव, सत्संगमें प्रीति तथा भगवत्स्मरणमें तीव्र प्रवृत्ति, भजनमें अनन्यता, अन्त:करणकी निर्मलता—सौम्यता, संशुद्धि तथा भोगजगत्की विस्मृतिपूर्वक भगवान्की अखण्ड स्मृति आदि दैवी गुणोंका उदय तथा उत्तरोत्तर अधिक-से-अधिक संवर्धन होने लगे।
याद रखो—भगवत्प्राप्त या भगवत्प्राप्तिका साधक ही यथार्थ मानव है और उससे सहज ही प्राणिमात्रका नित्य-निरन्तर कल्याण तथा हितसाधन होता रहता है। उसका वह दिव्य अध्यात्म-जीवन अंदरसे भगवत्संयुक्त है और बाहरसे चराचर प्राणी-रूप भगवान्की मंगलमयी सेवासे संयुक्त। उसके द्वारा सभीको सहज ही अभय, आश्वासन तथा कल्याण प्राप्त होता रहता है।
याद रखो—मानव-जगत्का तो वह सर्वथा कल्याणमय दिव्य आधार ही होता है। वह प्राणिमात्रका सहज सुहृद् होता है, उसका प्रत्येक कार्य स्वाभाविक ही मानवके दु:खनाश, विपत्तिहरण, मंगलकी प्राप्ति, परमहित-साधन और परम दिव्य सुखप्राप्तिका कारण होता है। वह अन्धकारमय जगत्में प्रकाशपुंज होता है, डूबनेवालोंको बचानेके लिये सुदृढ़ जहाज होता है और भयसे रक्षा करनेके लिये स्वयं अभयरूप होता है। वह स्वयं परम शान्ति तथा परम दिव्य नित्य आनन्दका स्वरूप एवं उनका वितरण करनेवाला होता है।
याद रखो—ऐसे ही मानवको आदर्श मानकर जीवन-निर्माण करनेवाला मानव-जीवनमें यथार्थ प्रगति करता है, वही विकासको प्राप्त होता है। जो ऐसा न करके भोगासक्त राजसी, तामसी, पशु-असुर-स्वभाव मनुष्योंको आदर्श मानकर उनका अनुकरण करते हैं, वे लूट-पाट, मार-काट, हत्या-हिंसा, चोरी-डकैती, अनाचार-व्यभिचार, भ्रष्टाचार-असुराचार आदिमें प्रवृत्त रहकर स्वयं यहाँ दु:ख भोगते हैं तथा मृत्युके बाद भीषण नरकयन्त्रणा और आसुरी योनिरूप अधोगति तथा विनाशको प्राप्त होते हैं एवं अपने दुष्कर्मोंके द्वारा जगत्के प्राणियोंमें असद्विचार, आसुरभाव, अशान्ति तथा पापका वितरण करते हुए उनके जीवनकी दुर्गतिमें कारण बननेका पाप करते हैं।