गीता गंगा
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क्रोध सहस्रों दोषोंकी खान है

याद रखो—जब कामना पूरी नहीं होती, उसपर चोट लगती है, हमारी इच्छाके विरुद्ध कुछ होता है, तब मनमें एक जलती हुई वृत्ति उत्पन्न होती है, उसका नाम है—क्रोध। क्रोध उत्पन्न होनेपर विवेक नष्ट हो जाता है, मन बेकाबू हो जाता है; वाणी मर्यादा, लज्जा तथा शील छोड़ देती है, व्याकुलता, उग्रता, अशान्ति, हिंसा और विनाशके भाव जाग उठते हैं।

याद रखो—जब क्रोध आता है, तब मुख तमतमा जाता है, आँखें लाल हो जाती हैं, भौंहें चढ़ जाती हैं, शरीर काँपने लगता है, होंठ चलने लगते हैं और इतनी मूर्खता छा जाती है कि क्रोधी मनुष्य आवेशमें भविष्यको भूलकर चाहे सो कर बैठता है।

याद रखो—क्रोधी मनुष्य कभी स्वस्थ नहीं रहता, उसकी पाचनशक्ति नष्ट हो जाती है। गुर्देकी तथा यकृतकी क्रिया विकृत हो जाती है। मुखसे अनर्गल निकलनेवाले कुत्सित, अश्लील और हिंसाभरे शब्द उसके शरीरपर वैसा ही प्रभाव डालते हैं। मनकी आग देहको भी जलाती है। संहार तथा विनाशका एक ऐसा घोररूप बन जाता है जो शरीरके नाश—आत्महत्या आदिके लिये बलपूर्वक प्रेरणा देता है।

याद रखो—क्रोध तमोगुणका मूर्तरूप है। तमोगुण बुद्धिका विनाश करता है, नीच कर्म करवाता है, प्रमादमें प्रवृत्त करता है और अधोगतिमें ले जाता है। क्रोध महाशत्रु है और शान्ति-सुख, लोक-परलोक और भुक्ति-मुक्ति—सबका सहज ही नाश कर देता है।

याद रखो—क्रोध शरीर तथा मनके सौन्दर्य-माधुर्यको नष्ट कर देता है। क्रोधी मनुष्यका मुख तथा सारे अंग—कुल शरीर विकृत हो जाता है; उसकी मधुरता तथा सुन्दरता मर जाती है तथा मनमें रहनेवाले प्रेम, त्याग, दया, सेवा, शील, शान्ति, सद्भावना, न्याय, विवेक, वैराग्य, स्वास्थ्यकर विचार, आध्यात्मिक साधनाके भाव, जो मनके वास्तविक सौन्दर्य-माधुर्य हैं, मिट जाते हैं।

याद रखो—क्रोधको यदि तनिक भी रहने दिया जाय तो वह चिरस्थायी मानस रोग बन जाता है, जो स्वभावमें चिड़चिड़ापन, अविश्वास, अहंकार, उद्वेग, अस्थिरता, कपट, असहिष्णुता, दूसरोंको दु:ख पहुँचानेकी इच्छा आदि नये-नये मानस रोगोंको उत्पन्न करता और उनको बढ़ानेमें सहायक होता है। क्रोधसे दीर्घकालीन—जन्मान्तरतक चलनेवाले वैर, हिंसा-प्रतिहिंसा-जैसे पतनकारी घोर दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं, जो हमारे सर्वनाशका कारण होते हैं।

याद रखो—जिसके मनमें क्रोध उत्पन्न होता है, वह क्रोध आते ही तुरंत जलने लगता है और जिसपर क्रोध आता है, वह क्रोधके व्यक्त होनेपर जलता है। फिर तो क्रोधाग्निमें परस्परके अनर्गल अविवेकयुक्त वाक्योंकी आहुति पड़ने लगती है, जो क्रोधको उत्तरोत्तर बढ़ाती रहती है।

याद रखो—उपर्युक्त दोषोंके अतिरिक्त अन्यान्य सहस्रों दोषोंकी खान तथा योनि है क्रोध। अतएव क्रोधसे सदा ही बचना चाहिये। जब हम सबके मनकी नहीं कर सकते, तब सब हमारे मनकी करें—यह आशा हमें क्यों करनी चाहिये और जब भगवान‍्के मंगल-विधानानुसार फल पहलेसे निश्चित है, तब हमें क्यों कामना करनी चाहिये।

याद रखो—कामना और अपने मनकी हो—ऐसी इच्छा न होगी तो क्रोध आवेगा ही नहीं। फिर सदा शान्ति रहेगी। पर यदि किसी कारणसे क्रोध आ भी जाय तो उस समय उसे अपने अंदर ही रखकर अपने-आप मर जाने दो। क्रोध आनेपर बोलो मत, मौनका नियम कर लो या भगवान‍्के पवित्र नामका जप आरम्भ कर दो। क्रोधको आश्रय नहीं मिलेगा—अर्थात् उसके आवेशमें कोई क्रिया नहीं होगी तो वह आप ही नष्ट हो जायगा।

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