गीता गंगा
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महात्माओंका दर्शन-संग अमोघ है

याद रखो—जिसको अपने जीवनमें सच्चे संत महापुरुषका संग प्राप्त हो चुका है, उसके समान सौभाग्यवान् और कोई नहीं है। ऋषभदेवजीने कहा है—‘महापुरुषोंकी सेवा-संगति मुक्तिका और विषयकामियोंका संग नरकका द्वार है। महापुरुष वही हैं, जो समचित्त हैं, शान्त, क्रोधरहित, सबके हितचिन्तक और सदाचार-सम्पन्न हैं, जो भगवान‍्के प्रेमको ही एकमात्र पुरुषार्थ मानते हैं, जिनकी केवल विषयचर्चा करनेवाले लोगोंमें तथा प्राणी-परिस्थितिरूप भोग-सामग्रियोंमें अरुचि है।’

याद रखो—भगवत्प्रेमी भक्त महात्माओंके लवमात्रके सत्संगके साथ स्वर्ग और मोक्षकी भी तुलना नहीं की जा सकती, फिर संसारके तुच्छ भोगोंकी तो बात ही क्या है। जडभरतजीने बतलाया कि ‘महापुरुषोंकी चरणधूलिसे जबतक जीवन अभिषिक्त नहीं होता, तबतक केवल तप, यज्ञादि कर्म, दान, अतिथि-दीनसेवा, वेदाध्ययन, देवोपासना आदि किसी भी साधनसे परमात्माका ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि महापुरुषोंके समाजमें सदा पवित्र कीर्ति श्रीहरिके गुणोंकी ही चर्चा होती रहती है, वहाँ भोगचर्चा होती ही नहीं; और वह भगवत्कथा—हरिचर्चा मोक्षार्थी पुरुषकी बुद्धिको भगवान‍्में जोड़ देती है।’

याद रखो—जिन महात्माओंकी बुद्धि सर्वत्र समदर्शन करती है, जिनका हृदय पूर्णरूपसे भगवान‍्के प्रति समर्पित है, उन साधुपुरुषोंके दर्शनसे बन्धन होना वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होनेपर मनुष्यके नेत्रोंके सामने अन्धकारका होना।

याद रखो—महापुरुषोंका संग दुर्लभ अवश्य है, बड़ी चाह होनेपर भगवत्कृपासे ही प्राप्त होता है और मिलनेपर भी महात्माओंको पहचानना हमारी बुद्धिके लिये वैसे ही कठिन है, जैसे पत्थर तौलनेके बड़े तराजूपर हीरा तौलना, पर यह निश्चित है कि महात्माका दर्शन-संग अमोघ है; मनुष्यकी वृत्तिके अनुसार उसका न्यूनाधिक मंगलमय आध्यात्मिक फल अवश्य ही होगा। अतएव महात्माओंका सेवन करो, उनके कहे अनुसार दैवी सम्पत्तिकी साधना तथा भजनको बढ़ाते रहो। किसी महात्माकी न कभी निन्दा करो, न अपमान करो।

याद रखो—शवरूप जड-शरीरको आत्मा माननेवाले लोग ईर्ष्यावश महापुरुष उनकी चेष्टापर ध्यान नहीं देते; क्योंकि निन्दा नाम-रूपकी ही होती है और महापुरुष नाम-रूपसे परे होते हैं। पर महात्माओंके चरणोंकी धूलि उन लोगोंके इस अपराधको न सहकर उनके तेज-ओजको नष्ट कर देती है। महापुरुषोंकी निन्दा वास्तवमें बड़ा ही जघन्य कार्य है, जिसे दुष्टलोग किया करते हैं। श्रीशुकदेवजीने राजा परीक्षित् को बताया था कि ‘जो लोग महापुरुषोंका अनादर-अपमान करते हैं, उनका वह कुकर्म उनकी आयु, लक्ष्मी, यश, धर्म, लोक-परलोक, विषयभोग और कल्याणके सब-के-सब साधनोंको नष्ट कर देता है।’ निन्दा तो किसीकी भी न करे। पर महापुरुषोंकी निन्दा-अपमान तो कभी भूलकर भी न करे।

याद रखो—जो अपने-आपको सर्वथा मिटाकर केवल भगवान‍्के हो चुके हैं, उन भगवान‍्के जनोंमें और भगवान‍्में भेदका अभाव होता है। वे भगवान‍्के साथ घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। अतएव उनका सेवन भगवान‍्का ही सेवन है। संत-महात्माके सेवनका अभिप्राय है—उनके द्वारा बताये हुए मार्गपर संदेहरहित तथा उत्साहयुक्त होकर अनवरत चलते रहना, उनके बताये हुए आचरणोंको जीवनमें उतारना, वैसे ही बनना, अपनी जानमें इसमें कभी जरा भी त्रुटि न होने देना। फिर भगवत्कृपासे तथा महात्माके संगके अव्यर्थ प्रभावसे सारे विघ्नोंका नाश होकर भगवान् या भगवान‍्के सुदुर्लभ दिव्य प्रेमकी प्राप्तिसे जीवन सफल हो ही जायगा।

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