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नित्यसुखकी प्राप्तिका उपाय

याद रखो—जबतक प्रतिकूलताका अनुभव होगा, तबतक शान्ति नहीं होगी और जबतक शान्ति नहीं होगी, तबतक सुख नहीं होगा। प्रतिकूलताका अनुभव जबतक आसक्ति, कामना और ममता है, तबतक हुए बिना नहीं रहेगा। जिस प्राणी-पदार्थ-परिस्थितिमें आसक्ति होगी, उसके विपरीत प्राणी-पदार्थ-परिस्थितिमें प्रतिकूलता होगी। जिस वस्तुकी कामना होगी, उस वस्तुके न मिलने या उससे विपरीत वस्तु मिलनेपर प्रतिकूलता होगी और ममताकी वस्तुके नाशकी आशंकामें भी प्रतिकूलता होगी; नाश होनेपर या उस वस्तुपर दूसरे किसीका मेरापन हो जानेपर तो प्रतिकूलता होगी ही। अतएव प्रतिकूलताका अनुभव न हो, इसके लिये किसी भी प्राणी-पदार्थ-परिस्थितिमें न राग-आसक्ति होनी चाहिये, न कामना तथा ममता; और ये सब अहंकारके रहते मिटती नहीं। अतएव अहंकारका न होना भी आवश्यक है। इसीसे गीतामें भगवान‍्ने कहा है—‘जो सारी कामनाओंका त्याग कर देता है, नि:स्पृह आचरण करता है, ममता तथा अहंकारसे रहित होता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।’

याद रखो—परिणाम या फलमें समता होनेपर अनुकूलता-प्रतिकूलता नहीं रहती; अथवा प्रत्येक परिणाम या फलको अपने सुहृद् भगवान‍्का मंगल-विधान मान लेनेपर सबमें अनुकूलताका अनुभव होता है, कहीं प्रतिकूलता रहती ही नहीं—इससे शान्ति मिल जाती है। जैसे दवा मीठी हो या कड़वी, उसके सेवनसे नीरोग होनेका दृढ़ विश्वास होनेपर उसके दोनों रूपोंमें अनुकूलताका बोध होता है, कड़वी दवाका स्वाद खारा होनेपर भी उसमें प्रतिकूलताका बोध नहीं होता। डॉक्टरके द्वारा किये हुए ऑपरेशनमें दर्द होनेपर भी दु:ख नहीं होता; क्योंकि उससे रोगनाशका विश्वास होनेके कारण अनुकूलताका अनुभव होता है।

याद रखो—दु:ख किसी भी प्राणी-पदार्थ या परिस्थितिमें नहीं है, वह प्रतिकूलताजनित अशान्तिमें है। वही प्राणी-पदार्थ-परिस्थिति एकके लिये सुखदायक होती है और दूसरेके लिये दु:खदायक। स्वयं एकके लिये भी किसी समय सुखदायक होती है, दूसरे समय दु:खदायक। जिसके जिस समय प्रतिकूल होती है, उसके उस समय वह अशान्ति पैदा करती है और जिसके जिस समय अनुकूल होती है, उसके उस समय शान्ति। अशान्तिमें दु:ख होता है, शान्तिमें सुख। अतएव जिसको सुख चाहिये, उसको प्राप्त प्राणी-पदार्थ-परिस्थितिमें प्रतिकूलता होनेपर भी उसे भगवान‍्का मंगल-विधान मानकर अनुकूलताका अनुभव करना चाहिये।

याद रखो—जो मनुष्य यह चाहता है कि ‘मुझे सदा अनुकूल प्राणी-पदार्थ-परिस्थिति प्राप्त होते रहें और मैं सुखी रहूँ, वह सदा दु:ख ही पाता रहेगा; क्योंकि प्राणी-पदार्थ-परिस्थिति सदा अनुकूल न किसीके हुए हैं, न हो सकते हैं। अतएव या तो प्रत्येक प्राणी-पदार्थ-परिस्थितिको मायाजनित ‘असत् ’ समझो, या भगवान‍्की विविध रसमयी लीला समझो या उसमें भगवान‍्के मंगल-विधानका दर्शन करो। तब अनुकूलता-ही-अनुकूलता रह जायगी और उस अनुकूलतासे शान्ति तथा शान्तिसे नित्य सुखका अनुभव होगा।’

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