ममताके केन्द्र केवल भगवान् बन जायँ
याद रखो—शरीर पांचभौतिक है। माताके उदरमें रज और वीर्यसे इसका निर्माण हुआ है। यह अनित्य है। इसकी उत्पत्ति होती ही है नाशके लिये। आत्मा अमर है, वह नित्य है, सत्य है। शरीरका जन्म होता है, आत्माका नहीं। आत्मा तो चेतन-जीव-रूपसे उसमें प्रविष्ट होता है। इसी प्रकार मृत्यु इस शरीरकी होती है—जीव-चेतनरूप आत्माकी नहीं। परंतु जबतक यह आत्मा जीव-चेतनरूपसे इस शरीर तथा शरीरके नाममें ‘मैं-पन’, इसकी ममताके प्राणिपदार्थोंमें ‘मेरापन’ रखता है, तबतक जन्म-मृत्युके क्लेशसे मुक्त नहीं होता।
याद रखो—इस क्लेशसे मुक्त होनेका साधन भी यह शरीर ही है। यदि जीव-चेतन शरीर तथा नाममें ‘मैं-पन’ एवं प्राणिपदार्थोंमें ‘मेरापन’ न रखे—(जो वास्तवमें है ही नहीं, केवल मिथ्या आरोप या कल्पना मात्र है—) और नित्य सत्य मुक्त अमृतरूप आत्मामें स्थित हो जाय तो प्रकृतिसे—बन्धनसे छूटकर सदाके लिये जन्म-मृत्युके क्लेशसे मुक्त हो सकता है।
याद रखो—माया बड़ी प्रबल है; वह जीवको भुलाये रखती है। इसीलिये जीव शरीर, नाम तथा प्राणिपदार्थोंसे अहंता-ममता हटानेकी बात तो सोचता ही नहीं, उलटा अधिक-अधिक अपने इस भ्रमको परम सत्य मानकर राग-द्वेषमें फँसता चला जाता है और शरीर तथा नामके लिये नये-नये पापकर्म करता रहता है। जीवनके नपे-तुले श्वास इसीमें बीत जाते हैं। काम-क्रोध-लोभ-परायण होकर वह मृत्युपर्यन्त चिन्ता, अशान्ति, दु:ख तथा अभावका अनुभव करता हुआ पापकर्मकी भारी राशि लेकर उसका कुफल भोगनेके लिये इस शरीरको त्यागकर अन्यान्य आसुरी योनि अथवा अधम गतिमें चला जाता है। यों जीव आया तो था मानव-शरीरमें मोक्षका साधन करके मुक्त होनेके लिये, सो तो हुआ ही नहीं; उलटे नरकों तथा नीच योनियोंका अधिकारी बनकर चला जाता है। यह बहुत बडे़ पश्चात्ताप तथा दु:खका विषय है।
याद रखो—बीता हुआ समय फिर हाथ आता नहीं; अत: मानव-जीवनका एक-एक क्षण बड़ी सावधानीके साथ आत्मोपलब्धि, भगवत्प्राप्ति या मुक्तिके साधनोंमें ही लगाओ। जो इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चेतना हमें प्राप्त हैं, उन सबके द्वारा भोगोंका परित्याग करके भगवान्का सेवन करो। हमारा सम्बन्ध अनात्मरूप भोग-जगत्से छूटकर एकमात्र आत्मासे या भगवान्से ही हो जाय। है तो अब भी वही, पर हम उसे भूलकर अज्ञानवश अनात्मसे सम्बन्धित हो रहे हैं। मिथ्या होनेपर भी जबतक यह है, तबतक हमको—प्रकृतिस्थ पुरुषरूप जीव-चेतनको कर्मानुसार जन्म-मृत्युके चक्रमें तथा विविध योनियोंमें भटकना पडे़गा ही। इसलिये इसमें जरा भी प्रमाद मत करो। एक क्षण भी अन्य चिन्तनमें मत बिताओ। पूरे मनसे, सम्पूर्ण बुद्धिसे भगवान्में जुड़ जाओ। इन्द्रियाँ अनवरत केवल भगवान्का ही स्पर्श प्राप्त करें, मन केवल उन्हींका मनन करे, बुद्धि उन्हींमें परिनिष्ठित रहे, आत्मा सदा ‘स्वस्थ’ रहे। भगवान्के सिवा अन्य कुछ रह ही न जाय। ऐसा कर सकें तो हमारा जीवन सार्थक है। मानव-जीवनका वास्तविक उद्देश्य सिद्ध हो गया। यह न हुआ तो जीवन व्यर्थ ही नहीं गया, अनर्थमय बीता—अनर्थ बटोरनेमें गया! और इसका परिणाम जो होगा, वह बहुत ही भयानक होगा। उस समय सिवा पश्चात्तापके कुछ भी उपाय नहीं रह जायगा।
याद रखो—जबतक श्वास चल रहे हैं, शरीर स्वस्थ है—तभीतक सुगमतासे यह साधन कर सकते हो। अत: लग जाओ पूर्णरूपसे और सफल कर लो अपना मानव-जीवन!