Hindu text bookगीता गंगा
होम > परमार्थ की मन्दाकिनी > शुभ-चिन्तनका अभ्यास बनावें

शुभ-चिन्तनका अभ्यास बनावें

याद रखो—मनुष्यके द्वारा होनेवाले शुभ-अशुभ कर्मोंमें प्रधान कारण उसके मनके विचार हैं। मनुष्य जिस प्रकारका चिन्तन करता है, जैसे संकल्प करता है, वह वैसा ही बनता है। अतएव सदा-सर्वदा अशुभ-चिन्तनको हटाकर शुभ-चिन्तनका अभ्यास करना चाहिये। भोग-कामना, क्रोध, लोभ, अभिमान, हिंसा, द्वेष, निर्दयता, पर-दोषदर्शन, डाह आदि सब अशुभ-चिन्तन हैं। प्रात:काल उठते ही भगवान‍्को नमस्कार करके भगवत्कृपाका आश्रय लेकर दिनभरके लिये शुद्ध संकल्प करना चाहिये। मनमें दृढ़ताके साथ निश्चय करना चाहिये कि आज दिनभर प्रभुकृपासे मैं भगवत्सेवाकी कामना, क्षमा, त्याग, नम्रता, अहिंसा, प्रेम, दया, पर-गुणदर्शन, परायी उन्नतिमें प्रसन्नता आदिके साथ-साथ प्रभुके नाम-गुणका चिन्तन ही करूँगा; अशुभ तथा अशुद्ध विचारोंको कभी मनमें क्रियामें आने ही नहीं दूँगा।

याद रखो—पुराना बुरा अभ्यास होनेके कारण शुद्ध संकल्प करनेपर भी अशुभ तथा अशुद्ध विचार मनमें आयेंगे, पर सावधानीके साथ उनके आते ही उन्हें निकालकर उनकी जगह शुभ तथा शुद्ध विचारोंको भरते रहना चाहिये। बार-बार अशुभको हटाने तथा शुभको स्थापित करनेके अभ्याससे—अभ्यासकी मन्दता-तीव्रताके अनुपातसे अशुभ विचार नष्ट होने लगेंगे, उनका आना कम होता चला जायगा और शुभ विचार बार-बार आकर अपना स्थान बना लेंगे और बढ़ते रहेंगे। पर अशुभको हटाने तथा शुभको लानेके कार्यमें असावधानी, आलस्य, प्रमाद कभी नहीं करना चाहिये। जबतक अशुभका सर्वथा विनाश न हो जाय, तबतक अग्निकी छोटी-सी चिनगारी भी बढ़कर सारे घरको भस्म कर देती है, इसी तरह, थोड़ा-सा अशुभ विचार भी आश्रय पा जायगा तो उसे बढ़कर हमारे जीवनके शुभको नष्ट करते देर नहीं लगेगी। अत: सावधान रहना चाहिये।

याद रखो—सावधानी ही साधना है। दिनभर प्रत्येक कार्य करते समय सावधानीके साथ देखते रहना चाहिये कि कभी किसी भी हेतुसे अशुभ विचार या संकल्प मनमें आ न जाय। शुभ विचार तथा संकल्पोंका बार-बार चिन्तन करते रहना चाहिये। अपने दोष-दुर्गुणोंपर अपनी मानस-पाप-चिन्ता-धारापर कभी दया नहीं करनी चाहिये, निरन्तर उसका समूलोच्छेद करनेके लिये सचेष्ट रहना चाहिये, अपने दोषपर कभी क्षमा न करके प्रायश्चित्तके रूपमें अपनेको कुछ दण्ड देना चाहिये, जिससे दोष-चिन्तन तथा दोष-सेवनमें बराबर रुकावट हो।

याद रखो—मनुष्यके जीवनका असली धन उसका सदाचार, उसके जीवनके सद‍्गुण, उसकी दैवी सम्पत्ति ही है। जो इस धन-सम्पत्तिको सुरक्षित रखने तथा बढ़ानेमें नित्य सावधान तथा तत्पर नहीं है, वह सबसे बड़ा मूर्ख है; क्योंकि वह अपनी बड़ी-से-बड़ी हानि कर रहा है। इसलिये इस शुभ धन-सम्पत्तिको नित्य बढ़ाते रहना चाहिये और जैसे व्यापारी अपना तलपट देखता है, वैसे ही प्रतिदिन रात्रिको सोनेसे पहले दिनभरका हिसाब-किताब देखना चाहिये। अशुभ-चिन्तन कितना कम हुआ, शुभ-चिन्तन कितना अधिक हुआ—यह देखना चाहिये। जैसे धनका लोभी संतोष न करके उत्तरोत्तर धनकी वृद्धि चाहता है, वैसे ही दैवी सम्पदा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहे, ऐसी तीव्र आकांक्षा करके दृढ़ निश्चय करना चाहिये कि प्रभुकृपासे कल आजसे कहीं अधिक दैवी सम्पत्तिकी वृद्धि होगी, शुभ तथा शुद्ध चिन्तन बढे़गा।

याद रखो—शुभ तथा शुद्ध चिन्तन बढ़ रहा है या नहीं, इसका पता लगता है हमारी क्रियाओंसे। हमारे कर्मोंमें, हमारे व्यवहारमें, आचरणमें उत्तरोत्तर सात्त्विकता आ रही है या नहीं, इसे देखते रहना चाहिये। यदि प्रभुकृपासे हमारे व्यवहार-आचरण—हमारे कर्म शुभ हो रहे हैं तो मानना चाहिये कि हमारा जीवन सच्चे सुखकी ओर—परमानन्दस्वरूप परमात्माकी ओर बढ़ रहा है। यही मानव-जीवनका लक्ष्य है।

अगला लेख  > भगवत्प्राप्ति अथवा ज्ञानकी कसौटी