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मानव-धर्म

याद रखो—किसी भी प्रकारसे किसी भी प्राणीके हितका विनाश करना हिंसा है। यह हिंसा मनसे होती है, वाणीसे होती है, कर्मसे होती है। किसीके भी हितनाशकी चाह करना मानस हिंसा है, हितनाशकी बात कहना वाचनिक हिंसा है और हितनाश करना कर्मजनित हिंसा है।

याद रखो—कोई भी प्राणी अपना अहित नहीं चाहता; सभी अपना हित—भला चाहते हैं। अतएव सदा मन-वचन-शरीरसे वही करना चाहिये, जिसमें दूसरोंका हित होता हो। यही ‘अहिंसा’ है। इसीका नाम ‘मैत्री’ है। यह अहिंसाकी—मैत्रीकी वृत्ति प्राणिमात्रके प्रति होनी चाहिये। मानवप्राणी विवेक-सम्पन्न है, अतएव उसपर विशेष दायित्व है। मानवप्राणी यदि परस्पर एक-दूसरेके हितसाधनमें लग जायँ, सभी सबके हितकी बात सोचें, हितकी बात कहें और हितका काम करें तो सबका भला हो सकता है। यह समष्टि-कल्याण ही वास्तवमें ‘मानव-धर्म’ है।

याद रखो—जो धारण करता है, वह धर्म है—जिस आचरण-व्यवहारके द्वारा प्राणिमात्र दु:खसे छूटें, सब सुखको प्राप्त करें, सबकी उन्नति और समृद्धि हो एवं सभी परस्पर एक-दूसरेके सुख-हित-सम्पादनके लिये सचेष्ट रहें—इस प्रकारके सर्वभूत-हितकर आचरणका नाम ही धर्म है।

याद रखो—मानव-जगत‍्में जब इस धर्मका विस्तार होता है, तब जगत‍्का वातावरण प्रेम तथा शान्तिसे भर जाता है। द्रोह-द्वेष, वैर-हिंसाका अस्तित्व लोप-सा होने लगता है और जब हिंसा नहीं होती तो प्रतिहिंसा कहाँसे होगी। सब सबको प्रसन्न देखना चाहते हैं और सब सबको देखकर प्रसन्न होते हैं।

याद रखो—जब मानव-समाजमें द्रोह-द्वेष, वैर-हिंसा तथा प्रतिहिंसा आदि दोष बढ़ जाते हैं, तब इनकी प्रेरणासे हिंसा-परायण होकर मनुष्य स्वयं ही मनुष्यका विनाश सोचने तथा विनाश करनेमें लग जाता है। उसके मन-बुद्धि, उसकी शिक्षा-विद्या, उसका ज्ञान-विज्ञान, उसकी शक्ति-सामर्थ्य, उसकी धन-सम्पत्ति, उसका अधिकार-प्रभाव और उसका आराधन-पूजन—सब इस विनाशके साधन बन जाते हैं।

याद रखो—मनुष्यकी शक्ति अपार है और उसकी योजनाएँ अत्यन्त विस्तृत तथा बहुमुखी हैं। उसकी योजनाएँ, मन-बुद्धिका निर्माण तथा विकास करनेवाले सत्संग, साहित्यलेखन, खान-पान, गोष्ठी, सभा-सम्मेलन, बड़े-छोटे विद्यालय एवं विश्वविद्यालय, ज्ञानार्जनके लिये छोटे-बड़े आश्रम, विज्ञानकी बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएँ, शक्ति-बल-सामर्थ्य बढ़ानेवाली मल्लशालाएँ,युद्धकला-शिक्षालय, शस्त्रास्त्र-निर्माणकेन्द्र, छोटे-बड़े व्यापारकी मण्डियाँ, विभिन्न वस्तुओंका उत्पादन तथा निर्माण करनेवाले कारखाने, छोटे-बड़े कृषिक्षेत्र, छोटे-बड़े न्यायालय, मन्त्रणालय, राजदरबार, धारासभाएँ और संसदें एवं मठ-मन्दिर-चर्च-मसजिद-अग्निमन्दिर आदि आराधनस्थल यथायोग्य चलते हैं और सभी अपने-अपने क्षेत्रमें काम करनेमें लगे रहते हैं; परंतु मनुष्यकी हिंसापरायणताकी वृत्ति सभी क्षेत्रोंमें उसके प्रत्येक कार्य या साधनका प्रयोग करना चाहती है हिंसामें, उसका फल चाहती है हिंसावृत्तिकी सार्थकता, जिसका परिणाम है ‘विनाश’। इसलिये मनुष्यको हिंसावृत्तिका सर्वथा परित्याग करके धर्मपरायण होना चाहिये।

याद रखो—धर्मपरायण होनेका अर्थ ही है—प्राणिमात्रके प्रति विशुद्ध अहिंसा और मैत्रीभावना एवं सदा सबका हित सोचने तथा हित करनेकी वृत्ति।

याद रखो—इस सर्वभूतहित-वृत्तिका होना ही मानवताकी सूचना है और इसीके विस्तारमें मानवता-विकास है। यही मानव-धर्म है।

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