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सब रूपोंमें भगवान‍्को अनुभव करें

याद रखो—भगवान‍्के दो रूप हैं—एक समुद्रके गम्भीर तलकी भाँति सर्वथा प्रशान्त, क्रियागुणहीन, लीलातरंगशून्य और दूसरा है समुद्रकी विविध विचित्र तरंगोंकी भाँति नित्य अत्यन्त उच्छलित, नित्यनर्तनशील, नित्य लीलातरंगमय। प्रशान्त समुद्रतल तथा विविध तरंगस्वरूप समुद्र एक ही है और एकहीके ये दोनों रूप नित्य सत्य हैं—दोनों सदा-सर्वदा एक साथ रहते हैं। प्रशान्त-स्वरूप भी लीला है और अशान्त-स्वरूप भी लीला है। लीला ही लीलामय हैं; लीलामय ही लीला हैं। एकमें रस और आनन्द-स्वरूपनिष्ठ है, दूसरेमें रस और आनन्द उछल-उछलकर अपनी मधुरताका प्रदर्शन और वितरण कर रहा है।

याद रखो—तरंग कभी बड़ी भीषण होती है, कभी बड़ी कोमल होती है। कभी उसे देखते ही भय लगता है, कभी उसे देखते ही चित्त हर्षसे भर जाता है। कभी कोई तरंग सब कुछ बहा ले जाकर अपनेमें आत्मसात् कर लेती है, तटवर्ती पदार्थमात्रका अस्तित्व मिटा देती है। कभी कोई तरंग अपने कोमल शीतल सलिल संदोह-स्पर्शसे केवल अनिर्वचनीय अनुपमेय सुख ही नहीं देती, वरं समुद्रमें छिपे रत्नोंको बाहर फेंक जाती है। पर इन दोनों ही स्थितियोंमें लीलायमान है वह समुद्र ही, जो इस समय भी अपने तलसे सर्वथा प्रशान्त है।

याद रखो—ये तरंगें ही परमात्मा-समुद्रकी विविध विचित्र अनन्त निज शक्तियाँ हैं—जिनके महामाया, योगमाया, आत्ममाया, गुणमयी माया, मूलप्रकृति, द्विविध जीवभूता और अष्टधा-प्रकृति, दो प्रकारके पुरुष, प्रकृति, प्रकृतिविकृति आदि नाम हैं। इन शक्तियोंके द्वारा—भगवान् इनके रूपमें ही—कभी प्रकट, कभी गुप्त अनन्त विचित्र लीलाओंमें आत्मप्रकाश कर रहे हैं।

याद रखो—जगत‍्के प्रत्येक प्राणी-पदार्थ-परिस्थिति, जगत‍्का उदय और जगत‍्का विलय—सभी भगवान‍्का आत्मप्रकाश है। इन सबके रूपमें भगवान् ही अभिव्यक्त हैं। यह समझकर सदा-सर्वदा—अपने सहित सबमें भगवान‍्को देखनेकी—छिपे भगवान‍्को प्रकट करनेकी इच्छा—चेष्टा करते रहो। यह प्रयास ही साधना है।

याद रखो—जिस पुरुषके जीवनमें इस साधनाका अंकुर उत्पन्न हो गया है, वह क्रमश: संसारकी ज्वाला-यन्त्रणा, पीड़ा-यातना, अशान्ति-असंतोष, ममता-मोह, मद-अभिमान, भय-विषाद आदिसे छूटकर प्रत्येक स्थितिमें और प्रत्येक अवसरपर भगवान‍्का अनुभव करने लगेगा और उसमें द्वन्द्वभावशून्य आत्यन्तिक सुख, शान्ति, संतोष, ज्ञान, भगवद्भाव, विनय, निर्भयता, नित्य परमानन्द, नित्य आत्मरति, नित्य जगत्-विस्मृति आदि सद्भाव-सद‍्गुणोंका उदय तथा उत्तरोत्तर संवर्धन होता रहेगा।

याद रखो—ऐसा साधक पुरुष जीवनके परम ध्येय—जो वस्तुत: उसे नित्य प्राप्त ही है—भगवान‍्को प्राप्तकर सफलजीवन हो जायगा। जगत‍्के समस्त प्राणियोंके कल्याणके लिये सहज ही उसके अंदरसे ऐसे दिव्य अमृत-ज्योति विद्युत् कण निकलकर जगत‍्में प्रसरित होने लगेंगे, जिनके स्पर्शमात्रसे विष—तमोमय प्रपंचसे छूटकर जगत‍्के जीव भगवान‍्के अमृतमय दिव्य ज्योतिर्मय-स्वरूपभूत परमधामको प्राप्त करनेके अधिकारी बनने लगेंगे। यों तरनतारण बन जायगा वह भगवान‍्में स्थित साधक।

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