मनुष्य-जीवनका एकमात्र उद्देश्य—भगवत्प्राप्ति
याद रखो—उपनिषद्में शरीरको रथ, इन्द्रियोंको घोड़े, मनको लगाम, बुद्धिको सारथी, जीवात्माको रथी और विषयोंको रथके चलनेके मार्गकी उपमा देकर यह कहा गया है कि जैसे सारथी विवेकयुक्त, कहाँ जाना है यह जाननेवाला तथा स्मरण रखनेवाला, घोड़ोंकी लगाम थामकर उन्हें चलानेमें चतुर एवं दुर्धर्ष तथा बलवान् घोड़ोंको नियन्त्रणमें रखनेकी शक्तिवाला होता है तो वह घोड़ोंके अधीन न होकर लगामके द्वारा घोड़ोंको अपने वशमें रखकर मालिकको उसके इष्ट-स्थानपर शीघ्र सुखसे पहुँचा देता है; वैसे ही जिस पुरुषकी बुद्धि विवेकवती, कर्तव्याकर्तव्यके ज्ञानसे सम्पन्न, मनको तथा इन्द्रियोंको वशमें रखनेमें समर्थ, सावधान, बलवान्, निश्चयात्मिका तथा ईश्वराभिमुखी होती है, वह पुरुष बुद्धिके द्वारा मनको संयममें रखकर इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले प्रत्येक आचारको शास्त्रानुकूल भगवत्प्रीत्यर्थ निष्कामभावसे सम्पन्न करके अपने-आपको भगवान्के धाममें ले जाता है।
याद रखो—जिसकी बुद्धि अनिश्चयात्मिका, अविवेकवती, मनको अपने अधीन रखनेमें असमर्थ, इन्द्रियोंको मनके सहारे इच्छानुसार सत्पथपर—भगवान्के मार्गपर चलानेमें अक्षम तथा बहुशाखावाली होती है, उसका असंयत मन उच्छृंखल तथा बहिर्मुखी बलवान् इन्द्रियोंके वशमें हो जाता है। इन्द्रियाँ सदा-सर्वदा दुराचार, दुष्कर्ममें लगी रहती हैं। फलत: बुद्धि और भी कुविचार तथा अविचारसे युक्त हो जाती है एवं वह पुरुष मानव-जीवनके परम तथा चरम लक्ष्य भगवत्प्राप्तिसे वंचित तो रहता ही है, बुरे कर्मोंके फलस्वरूप सदा संसारचक्रमें भटकता रहता है—बार-बार आसुरी योनियोंमें जाता है और नरकोंकी असह्य यातना भोगनेको बाध्य होता है। इस प्रकार उसका घोर पतन हो जाता है—वैसे ही जैसे मूर्ख तथा अविवेकी सारथीका रथ रथी तथा घोड़ोंसहित गहरे गड्ढेमें गिर पड़ता है।
याद रखो—इसलिये मनुष्यका यह कर्तव्य है कि परमानन्दमय भगवान्की प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति अथवा भगवत्प्रेम-प्राप्ति-स्वरूप महान् लक्ष्यपर सदा स्थिर रहे—भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेमको ही जीवनका एकमात्र परम उद्देश्य समझे, बुद्धिको सदा भगवत्सम्बन्धी विचारोंमें तथा भगवत्प्राप्तिके साधनोंके अनुष्ठानमें ही लगाये रखे, पवित्र तथा भगवदभिमुखी निश्चयात्मिका बुद्धिके द्वारा मनको सदा भगवत्सम्बन्धी संकल्पों तथा स्मरणमें संलग्न करता रहे; कभी भी अनर्थ या व्यर्थ निश्चय या चिन्तन न करे; इन्द्रियोंको सदा भगवत्सम्बन्धी विषयोंमें ही साधनरूपसे नियुक्त करता रहे; उन पवित्र भगवत्सम्बन्धी विषयोंमें ही निरन्तर इन्द्रिय, मन,बुद्धिको रसकी—निर्मल भगवत्प्रेमकी—परमानन्दकी प्राप्ति होती रहे।
याद रखो—जिसके कान परनिन्दा, पापचर्चा, असत्-वार्ता, व्यर्थकी बातचीत एवं पतनकी ओर ले जानेवाले गान-वाद्य या कोई भी शब्द और अपनी प्रशंसाके वाक्य न सुनकर केवल सत्-चर्चा, भगवत्-लीला-कथा, भगवत्-स्वरूपकी वार्ता, संतों-भक्तोंके गुणगान, जीवनको उच्चस्तरपर पहुँचानेवाले वाक्य सुनते रहते हैं; जिनकी आँखें भोग्य-विषयोंको न देखकर प्राकृत जगत्में सर्वत्र भगवान्को और भगवान्के सौन्दर्यको तथा भगवद्विग्रहों, साधु-महात्मा तथा संतोंको, पवित्र वस्तुओं तथा स्थानोंको देखती हैं; जिनकी त्वगिन्द्रिय कोमल विकारी पदार्थों, विकार उत्पन्न करने तथा बढ़ानेवाले अंगोंका स्पर्श न करके पवित्र करनेवाले संत-चरणोंका जीवनमें सात्त्विकता लानेवाले पदार्थोंका स्पर्श करती है; जिनकी जिह्वा स्वाद लानेवाले विकारी राजस-तामस पदार्थोंका रस न चखकर सात्त्विक पदार्थोंका तथा भगवत्प्रसादका रस लेती है और जिनकी नासिका विकार उत्पन्न करनेवाले सुगन्ध-द्रव्योंको छोड़कर पवित्र गन्धका, भगवत्प्रसादरूप गन्धका और सात्त्विक पदार्थोंके गन्धका सेवन करती है, वे पुरुष इन इन्द्रियोंके द्वारा भगवान्की सेवा करते हैं, इन्द्रियोंके ये पवित्र विषय उनके मन-बुद्धिको और भी पवित्र करते रहते हैं और उनके शरीरोंके द्वारा भी भगवत्सेवाका ही कार्य होता है—इस प्रकार उनके मन, बुद्धि, इन्द्रिय तथा शरीर स्वयं भगवत्कार्यमें लगे रहते हैं और एक-दूसरेको लगाते रहते हैं। इससे उनका जीवन पवित्र, शान्त, सुखमय होकर भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेम-प्राप्तिके द्वारा सफलजीवन हो जाता है। अतएव सदा-सर्वदा बुद्धिको विवेकवती बनाकर मन-इन्द्रियोंको निरन्तर भगवान्के पवित्र पथपर चलाते रहें—यही परम कर्तव्य है।