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संतका संग एवं सेवन करें

याद रखो—मनुष्य-जीवनकी चरम तथा परम सफलतारूप भगवत्प्राप्तिके लिये प्रमुख साधनोंमें एक श्रेष्ठ साधन है—भगवत्प्राप्त पुरुषका, संतका संग, उसका सेवन। संग तथा सेवनका अर्थ ‘साथ रहना’ और ‘शारीरिक सेवा’ करना भी होता है। परंतु भावरहित हृदयसे केवल साथ रहने अथवा किन्हीं सांसारिक मनोरथोंको मनमें रखकर शारीरिक सेवा करनेसे बहुत ही कम लाभ होता है।

याद रखो—संग वही है, जिसमें उन संत पुरुषके विचारों, भावों, उपदेशों तथा उनके द्वारा प्राप्त तत्त्व-विचारोंका नित्य मनन होता रहे और ‘सेवन’ वह है, जिसमें इन सबका जीवनमें विकास हो जाय। इसीके लिये सदा सावधान तथा प्रयत्नशील रहना चाहिये।

याद रखो—संतका संग-सेवन यदि लौकिक कामनाको लेकर किया जाता है तो वह ऐसा ही है, जैसे अमूल्य रत्न हीरेको छोड़कर काँचकी कामना करना। यही नहीं, वस्तुत: सांसारिक भोग निश्चित दु:खपरिणामी और आत्माका पतन करनेवाले हैं—इसलिये भोगकामनाकी पूर्तिके लिये संतका संग तथा सेवन तो पवित्र अमृतके बदले हलाहल विष माँगनेके समान है। यद्यपि संतसे विष मिलता नहीं, क्योंकि उनमें विष है ही नहीं, तथापि लौकिक भोग-कामी साधक परम परमार्थ-धनसे तो दीर्घकालतक वंचित रह ही जाता है। अतएव संतका संग और सेवन केवल भगवत्प्राप्तिके लिये अथवा उस संतकी संतुष्टिके लिये ही करो।

याद रखो—संतका संग तथा सेवन यदि भगवत्प्राप्तिके शुद्ध-भावसे होगा तो निश्चय ही—साधककी स्थिति तथा साधनकी गतिके अनुसार—उसको परमार्थ-पथपर प्रगतिके अनुभव होने लगेंगे और वह उत्तरोत्तर आगे बढ़ता चला जायगा। प्रगतिके वे लक्षण ये हैं—

१-काम, क्रोध, लोभ, मद, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष, वैर हिंसा, विषाद, शोक, भय, पर-अहितमें रुचि, व्यर्थ-चिन्तन, व्यर्थ-भाषण, कटु भाषण आदिका न रहना।

२-मनमें विकार उत्पन्न करनेवाले शारीरिक, मानसिक, साहित्यिक—कुसंगका त्याग।

३-जगत‍्के विषयोंकी विस्मृति।

४-भोगोंमें वैराग्य तथा उपरति।

५-जागतिक लाभ-हानि तथा अनुकूलता-प्रतिकूलतामें सुख-दु:ख न होना, समान स्थिति रहना।

६-बुद्धि, मन तथा इन्द्रियोंका भोगोंकी ओरसे हटकर भगवान‍्में लगे रहना।

७-भगवान‍्के नाम-गुण-लीला-तत्त्व आदिके श्रवण-कीर्तन-स्मरणमें मधुर रुचि।

८-दैवी सम्पत्तिके सभी लक्षणोंका सहज विकास।

९-संतके तथा भगवान‍्के अनुकूल आचरण।

१०-अपने इष्ट भगवान‍्का नित्य मधुर स्मरण।

११-स्वाभाविक ही ‘सर्वभूतहित’ की भावना तथा शास्त्रविहित कर्मोंमें प्रवृत्ति।

याद रखो—उपर्युक्त लक्षण जीवनमें प्रकट होने लगें तो समझो कि वास्तवमें ही संतका संग तथा संतका सेवन हो रहा है। जैसे सूर्यके उदय होनेपर प्रकाशका होना अनिवार्य तथा स्वयं-सिद्ध प्रत्यक्ष है, वैसे ही संतके संग तथा सेवनसे उपर्युक्त भावों तथा गुणोंका प्रकाश अनिवार्य, स्वयंसिद्ध तथा प्रत्यक्ष होता है।

याद रखो—संतका संग और संतका सेवन करनेपर भी यदि उपर्युक्त लक्षणोंका उदय न होकर उसके विपरीत आसुरी सम्पत्तिका विकास तथा विस्तार, भोगोंमें तथा पापोंमें रुचि, शास्त्रनिषिद्ध कर्मोंमें राग, पर-अहितमें प्रसन्नता, विषयचिन्तन आदि होते हैं तो समझना चाहिये कि या तो जिनको संत माना गया है, वे संत नही हैं अथवा उनका संग और सेवन न करके उनके नामपर विषय-संग तथा विषय-सेवन ही किया जा रहा है; भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य ही नहीं है।

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