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मनुष्यके दो बड़े शत्रु—राग और द्वेष

याद रखो—मनुष्यके दो बड़े शत्रु हैं, जो सदा साथ रहते हैं और जिनको हमने जीवनमें प्रमुख स्थान दे रखा है; यहाँतक कि हमारे प्रत्येक कार्य प्राय: उन्हीं दोनोंकी प्रेरणासे और उन्हीं दोनोंके नियन्त्रण-निरीक्षणमें होते हैं। वे शत्रु हैं—राग और द्वेष। अर्जुनसे श्रीकृष्णने कहा था—‘प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें राग-द्वेष हैं, उनके वशमें मत होओ! वे दोनों तुम्हारे कल्याण-पथके शत्रु हैं।’

याद रखो—किसीका राग ही किसीके प्रति द्वेष होता है। हम किसी प्राणी, पदार्थ, परिस्थितिमें राग रखते हैं तो उनका जो कुछ विरोधी होता है, उसके प्रति हमारा द्वेष होता है। द्वेषका बदला द्वेषसे मिलता है। जिसके मनमें द्वेष है, उसके मनमें नित्य जलन रहती है तथा वह सदा बुरी बातें—दूसरोंके अहितकी बातें ही सोचा करता है और जैसे मनके विचार होते हैं, वैसी ही क्रिया बनती है। फलत: द्वेष जीवनका स्वभाव बन जाता है।

याद रखो—जिन प्राणी, पदार्थ, परिस्थितियोंमें तुम्हारा राग है और जिनको तुम सदा अपनी ममताकी सीमामें रखना चाहते हो, वे कदापि सदा तुम्हारी नहीं रहेंगी, वे तुमसे अलग होंगी ही, तुमसे बिछुड़ेंगी ही और ममताकी वस्तुका वियोग होनेपर बड़ा दु:ख होगा।

याद रखो—राग और द्वेष—दोनों ही चित्तमें अशान्ति रखते हैं तथा नयी-नयी अशान्ति पैदा करते रहते हैं। रागकी प्राप्त वस्तुओंको बनाये रखने तथा अप्राप्त वस्तुओंको पानेकी कामना रहती है और द्वेषकी वस्तुओंसे सर्वनाशकी। दोनों ही प्रकारकी कामनाएँ विवेकपर अज्ञानका पर्दा डाल देती हैं और अज्ञानवश तुम अपना भविष्य सोचनेमें असमर्थ होकर ऐसे-ऐसे बुरे संकल्प तथा बुरे कार्य कर बैठते हो, जिनका परिणाम तुम्हारे लिये बहुत ही बुरा होता है। उस परिणामके भोगसे बच नहीं सकते। पीछे पछतानेसे कुछ फल होता नहीं।

याद रखो—तुम जिससे द्वेष करते हो, अवश्य ही उसमें तुम्हें दोष दिखायी देते हैं। यह नियम है, जिसमें द्वेष होगा, उसके गुण भी दोषरूप दिखायी देंगे और तुम्हें किसीमें दोष इसीसे दिखायी देते हैं कि तुम्हारे अंदर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपमें वे दोष हैं। जिसमें जो चीज न हो, उसको कहीं भी वह नहीं दीखती। छोटे बच्चेमें जबतक कामवासनाका ज्ञान नहीं होता, तबतक कोई कैसा ही आचरण उसके सामने करे, उसमें कोई वासना उसे नहीं दिखायी देगी; क्योंकि उसमें वह है नहीं। किसी दैवीसम्पदायुक्त महापुरुषमें यदि सर्वत्र सद‍्बुद्धि या भगवद‍्बुद्धिका उदय हो गया है तो उसकी दृष्टि सभीमें संत या भगवान‍्को देखेगी—महात्मामें भी और चोर-डाकूमें भी; क्योंकि उसके जीवनमें संत और भगवान् ही रह गये हैं। अतएव तुम किसीमें दोष देखते हो तो इससे सिद्ध होता है कि तुममें वह दोष है, इसलिये तुम पहले अपने दोषको देखो, उससे घृणा करो, उससे द्वेष करो और उसका नाश करनेके प्रयत्नमें लग जाओ।

याद रखो—तुम्हें जो कुछ अच्छा-बुरा फल मिल रहा है, उसका तुम्हारे जन्मसे पहले ही निर्माण हो चुका है और वह हुआ है उस न्यायपरायण निर्भ्रान्त दयामयी नियन्त्रण करनेवाली प्रभुशक्तिके द्वारा, जो तुम्हारे अपने ही किये हुए कर्मके परिणामके रूपमें तुम्हारे कल्याणके लिये उस फलका निर्माण करती है। दूसरा निमित्त बनकर अपना बुरा भले ही कर ले—तुम्हारे कर्मके बिना तुम्हारा बुरा वह नहीं कर सकता। अतएव तुम्हें जो फल मिल रहा है, इसके मूलमें तुम्हारा ही दोष है—अपराध है; अतएव दूसरेको दोष देकर उससे द्वेष करना व्यर्थ है और नया पाप करना है।

याद रखो—महान् सत्य यह है कि समस्त चराचर भगवान‍्की ही अभिव्यक्ति है, उसके रूपमें भगवान् ही प्रकट हैं, फिर भगवान‍्से द्वेष कैसे किया जाय। उनका तो हर हालतमें पूजन-सम्मान ही करना है—

सीय राम मय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥

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