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परदोष-दर्शन न करें

याद रखो—भगवान‍्ने जितने भी प्राणी-पदार्थोंकी रचना—सृष्टि की है, सबमें कुछ-न-कुछ गुण अवश्य वर्तमान हैं। गुण देखनेवालोंको गुण मिलते हैं। अतएव प्रत्येक प्राणी-पदार्थमें गुण देखनेकी चेष्टा करो। अभी जो हमें सबके दोष दीखते हैं, इसका प्रधान कारण है—हमारी दोष-दृष्टि। हमारी दृष्टिमें ही दोष भरे हैं, इससे हमें सभीमें दोष-ही-दोष दिखायी देते हैं; गुणकी ओर हमारी दृष्टि जाती ही नहीं।

याद रखो—हमें अपना यह दृष्टिकोण ही बदलना पडे़गा, इस दृष्टिदोषको ही मिटाना होगा। जहाँ गुण-दृष्टि हुई कि हमें सबमें गुण-ही-गुण दिखायी देने लगेंगे।

याद रखो—हमारी दृष्टिमें राग-द्वेषके कारण भी वस्तुका यथार्थ रूप दिखायी नहीं देता। जिस प्राणी-पदार्थमें राग होता है, उसके दोषमें भी गुण दीखते हैं और जिस प्राणी-पदार्थसे द्वेष होता है, उसकी विस्तृत गुणावलीमें भी दोष दिखायी देते हैं। राग-द्वेष कभी भी वस्तुके यथार्थ स्वरूपका दर्शनज्ञान नहीं होने देते। इसलिये चित्तको राग-द्वेषरहित करना पडे़गा।

याद रखो—जहाँ दृष्टिमें दोष देखनेकी प्रवृत्ति हो गयी है, वहाँ राग बहुत कम रहता है और द्वेष बहुत ज्यादा; क्योंकि जिसमें दोष-ही-दोष दीखते हैं, उससे द्वेष उत्पन्न हो जाता है तथा द्वेष होनेपर दोषदृष्टि और भी प्रबल तथा सुदृढ़ हो जाती है। ऐसी अवस्थामें सदाचार तथा सद‍्गुणोंमें भी सद्‍वृत्ति और सत्यव्यवहारमें भी, यहाँतक कि संतोंमें और भगवान‍्में भी दोष दीखने लगते हैं। जगत‍्में लोग जो भगवान् की, संतोंकी, सदाचार तथा सद‍्गुणोंकी सद्‍वृत्ति और सत्यव्यवहारकी भी निन्दा करते देखे जाते हैं, इसका प्रधान कारण है—उनकी बद्धमूल दोष-दृष्टि।

याद रखो—मनुष्यको दूसरोंमें जितने अधिक दोष दिखायी देते हैं, उतना ही अधिक दोषोंका चिन्तन होता है। जैसा सतत चिन्तन होता है, वैसा ही अन्त:करणका रूप बन जाता है और फलत: दोषोंका चिन्तन करते-करते उसके अपने जीवनमें वे ही दोष आ जाते हैं। फिर तो बाहर-भीतर दोषोंका ही वातावरण बन जाता है और मनुष्यका अनायास ही पतन हो जाता है।

याद रखो—इस दोष-दृष्टिका जबतक मूलोच्छेदन नहीं होगा, तबतक पतनकी ओर गति बनी ही रहेगी। इसलिये इसका नाश करना परम आवश्यक है। दोष-दृष्टिका नाश होता है गुण-दृष्टिसे। अत: ऐसी चेष्टा करनी चाहिये, जिससे हमारी वृत्ति जहाँ दोष देखती है, वहाँ वह गुण खोजनेमें लग जाय। यह निश्चित है कि खोजनेपर गुण निश्चय ही मिल जायँगे; क्योंकि इस जीव-जगत‍्में प्रत्येक प्राणी-पदार्थमें न्यूनाधिकरूपमें सत्त्व, रज, तम—तीनों गुण रहते हैं। हम किसीके सत्त्वकी ओर देखेंगे तो हमें उसमें गुण दिखायी देने लगेंगे और जितना हम उसमें गुण देखकर—सात्त्विकता देखकर उसके गुणोंका—सात्त्विकताका विचार करेंगे, हमारे विचार उसके हृदयमें जाकर उसकी सात्त्विकताको और भी बढ़ायेंगे। हमारे विचार जितने ही अधिक सुपुष्ट, प्रबल, विशद तथा दृढ़ होंगे, उतनी ही उसकी सात्त्विकता अधिक बढे़गी। फलत: क्रमश: उसका जीवन सात्त्विकताकी—सद‍्गुणोंकी अधिकतासे भरता जायगा और उसके दोषोंका मूलोच्छेद होने लगेगा। अतएव कभी किसीके दोष न देखकर सदा सबमें गुण देखनेका ही अभ्यास तथा प्रयास करना चाहिये, इसीमें अपना और उसका हित है।

याद रखो—परमार्थके साधकके लिये तो परदोष-दर्शन बहुत बड़ा साधनका विघ्न है। वस्तुत: साधकको पराये दोष-गुण दोनों ही नहीं देखने चाहिये, परंतु दोष तो कभी भी नहीं देखने चाहिये।

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