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परदोष-दर्शन तथा पर-निन्दासे हानि

याद रखो—मनुष्यमें एक बड़ी मानसिक दुर्बलता यह है कि वह अपनी प्रशंसा सुनकर और दूसरोंकी निन्दा सुनकर प्रसन्न होता है। अपनी प्रशंसामें और पर-निन्दामें उसे निरन्तर बढ़नेवाली ऐसी एक मिठास आने लगती है कि वह कभी अघाता ही नहीं और फिर स्वयं ही अपनी प्रशंसा तथा दूसरोंकी निन्दा करने लगता है।

याद रखो—जगत‍्में गुण-दोष भरे हैं, पर जिसकी वृत्ति दोष देखनेकी हो जाती है, उसे पर-दोषोंको ढूँढ़-ढूँढ़कर देखने तथा उनका बढ़ा-चढ़ाकर बखान करनेमें रस आने लगता है। यह बहुत बुरी वृत्ति होती है। इस वृत्तिके हो जानेपर पर-दोष देखना और पर-निन्दा करना ही उसका प्रधान कार्य हो जाता है। फिर, वह जैसे अपने अति आवश्यक कामको मन लगाकर तथा विभिन्न साधनोंसे सम्पन्न करना चाहता है, वैसे ही परदोष-दर्शन तथा पर-निन्दामें अपने तमाम साधनोंको लगा देता है। यही उसका स्वभाव बन जाता है।

याद रखो—जिसका दोष देखनेका स्वभाव हो जाता है, उसकी आँखें बदल जाती हैं, उसे गुणमें भी दोष दिखायी देते हैं और वह गुणको भी दोष बताकर निन्दा करने लगता है। इसीको ‘असूया’ दोष कहते हैं।

याद रखो—मनुष्य अपने सच्चे दोषोंकी भी निन्दा सुनना नहीं चाहता, यद्यपि यह उसकी कमजोरी है, फिर झूठी निन्दा सुननेपर तो उसे क्षोभ होता ही है और निन्दा करनेवालेके प्रति द्वेष-द्रोह हो जाता है। उस द्वेष-द्रोहके कारण वह भी अपने निन्दककी निन्दा करता है और उससे कलह करता है। परिणाम यह होता है—आपसमें दोनोंका वैर बँध जाता है और दोनों ही एक-दूसरेका अनिष्ट करनेमें लग जाते हैं। दोनोंके ही अपने-अपने बन्धु-बान्धव भी होते हैं; अतएव इनके वैरका विष उन लोगोंमें भी फैलता है और परस्पर विरोधी दल बन जाते हैं, जिसका परिणाम झगड़ा ही नहीं, हिंसा-हत्यातक हो जाती है और कैद-फाँसीकी भी नौबत आ जाती है। फिर पीढ़ियोंतक वैर चलता है।

याद रखो—जिस मानव-जीवनमें मनुष्य सबका हित करके मन-वाणीसे सबको सुख पहुँचाकर भगवान‍्के सन्मार्गपर चलता और जगत‍्में दैवी सम्पदाका विस्तार करता तथा अन्तमें भजनमें लगकर भगवत्प्राप्ति कर लेता—उस दुर्लभ मानव-जीवनको परदोष-दर्शन तथा पर-निन्दामें तथा अपनी मिथ्या प्रशंसामें लगाकर अपने जीवनको तथा दूसरोंके जीवनको भी इस लोक तथा परलोकमें नरक-यन्त्रणा-भोगका भागी बना देना—कितना बड़ा प्रमाद और पाप है! इससे बड़ी सावधानीके साथ सबको बचना चाहिये।

याद रखो—मनुष्यका परम कर्तव्य है—भगवान‍्के गुणोंका, उनके नामका, उनकी लीलाका श्रवण, कथन तथा कीर्तन एवं स्मरण करनेमें ही जीवनको लगाना। बुद्धिमान् मनुष्यको तो दूसरोंके न तो गुण-दोषका चिन्तन करना चाहिये, न उनको देखना चाहिये और न उनका वर्णन ही करना चाहिये। उसे तो भगवद‍्गुण-चिन्तनसे ही समय नहीं मिलना चाहिये। पर यदि देखे बिना न रहा जाय तो दूसरोंके गुण देखने चाहिये और ढूँढ़-ढूँढ़कर अपने दोष देखने चाहिये। न रहा जाय तो दूसरोंके सच्चे गुणोंकी प्रशंसा करनी चाहिये और अपने दोषोंकी साहसके साथ निन्दा। वास्तवमें परमार्थकी दृष्टिसे तो यह सब कुछ न करके भगवच्चिन्तन तथा भगवन्नामगुणका कथन-कीर्तन-चिन्तन ही करना चाहिये।

याद रखो—आज ही यह प्रतिज्ञा करनी है कि मैं अबसे कभी भी न तो पर-दोष देखूँगा और न किसीकी निन्दा-चुगली ही करूँगा। अपना अधिक-से-अधिक मन तथा समय भगवान‍्के नाम-गुण-स्वरूप-चिन्तनमें ही लगाऊँगा और उन्हींका कीर्तन करूँगा।

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