गीता गंगा
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सभी नाम-रूपोंमें भगवान‍्को अभिव्यक्त देखते हुए व्यवहार करें

याद रखो—तुम सबसे पहले स्वरूपत: नित्य एक आत्मा हो, फिर मनुष्य हो, फिर भारतवासी हो, फिर हिंदू हो, फिर अमुक प्रदेशवासी हो, फिर अमुक परिवारके सदस्य हो, फिर माता-पिता, पत्नी-पति, पुत्र-पौत्र, स्वामी-सेवक आदि कुछ हो।

याद रखो—आत्माके अतिरिक्त ये सभी स्वरूप तुम्हारे यथार्थ स्वरूप नहीं हैं; ये तो अनित्य संसारके अनित्य क्षेत्रोंमें कामचलाऊ नाम-रूप हैं। इन सबमें यथायोग्य व्यवहार करके जीवन-यात्रा चलानी है। पर यह सदा ध्यान रखना है कि अपने इन विभिन्न नाम-रूपोंके अभिमानमें मनुष्येतर प्राणियोंको, भारतके अतिरिक्त अन्यान्य देशवासियोंको, हिंदूके अतिरिक्त अन्यान्य धर्म-जातिवालोंको, अपने प्रदेशके अतिरिक्त अन्यान्य प्रदेशवासियोंको, अपनी भाषाके अतिरिक्त अन्यान्य भाषा-भाषियोंको, अपने नगर-गाँवके अतिरिक्त अन्यान्य स्थान-निवासियोंको, अपने परिवारके अतिरिक्त अन्यान्य परिवारोंके सदस्योंको, अपने सिवा अन्य सबको तुम ‘पर’ कहीं न समझ बैठो और कहीं अपने कल्याणके मोहमें दूसरोंका अकल्याण चाहने और करने न लग जाओ।

याद रखो—किसी भी दूसरेका अकल्याण या अहित अपना ही अकल्याण या अहित है—वैसे ही, जैसे अपने एक ही शरीरके विभिन्न अंग अपना ही शरीर हैं। किसी भी अंगपर चोट पहुँचाना अपने ही शरीरको चोट पहुँचाना है और कहीं भी चोट लगनेपर उसके दर्दका अनुभव अपनेको ही होता है। इसी प्रकार एक ही आत्माके ये सब विभिन्न नाम-रूप हैं। इनमें कोई भी कभी भी न तो ‘पर’ (दूसरा) है और न दूसरा हो सकता है।

याद रखो—इससे भी महत्त्वकी बात यह है कि आत्मारूपमें स्वयं श्रीभगवान् ही प्रकाशित हैं। साथ ही चेतन आत्माके अतिरिक्त जड प्रकृतिके रूपमें भी उन्हींकी मंगलमयी लीला प्रकाशित है, जो उन लीलामयसे सदा-सर्वथा अभिन्न है। अतएव जड-चेतन जो कुछ भी है—सभी श्रीभगवान् ही हैं। वे ही लीलामय विभिन्न नाम-रूप धारण करके लीला कर रहे हैं। यदि तुम भक्त हो—या बनना चाहते हो अथवा एकमात्र सत्यके अन्वेषक हो तो तुम्हें सदा-सर्वदा सभी नाम-रूपोंमें एकमात्र भगवान‍्को ही प्रकट समझकर सदा सभीका हित, सभीका कल्याण चाहना-करना चाहिये।

याद रखो—किसी भी प्राणीका असत्कार करना, किसीका अहित करना, किसीको भी दु:ख पहुँचाना अपने परमाराध्य भगवान‍्का ही असत्कार-अहित करना है और भगवान‍्को ही दु:ख पहुँचाना है तथा यह महापाप है; अतएव इससे सदा बचे रहो—सदा सावधानीके साथ इस प्रकारकी कोई भी चेष्टा मत करो।

याद रखो—जो समस्त नाम-रूपोंवाले प्राणियोंमें भगवान‍्को देखकर सदा-सर्वदा सबका सम्मान करता है, सबकी सेवा करता है, सबको सुख पहुँचाता है और सबका हित करता है, उसके द्वारा सदा भगवान् ही सम्मानित, सेवित, सुखी होते हैं और हित प्राप्त करते हैं। वह सदा भगवान‍्की ही पूजा करता है। भगवान् उसकी इस नित्य-पूजासे परम प्रसन्न होकर उसे अपना स्वरूप दान देते हैं।

याद रखो—यदि सबमें अपने आत्माको समझकर सबका सम्मान, सेवा, हित करते हो, सबको सुख पहुँचाते हो, तब तो सदा ही आत्मसंतुष्टि प्राप्त होती रहती है और सदा ही आत्मरमण करते हुए तुम अपने स्वरूपमें स्थित रहते हो।

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