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॥ श्रीहरि:॥

संतोषी परम सुखी

याद रखो—मनुष्यकी एक बड़ी कमजोरी है—उसका चिरस्थायी ‘असंतोष’। इसीसे वह सदा दु:खी रहता है। तृष्णाकी कोई सीमा नहीं है; जितना मिले, उतनी ही तृष्णा बढ़ती है। भोगोंकी प्राप्तिसे तृष्णाका अन्त नहीं होता—वरं ज्यों-ज्यों भोग प्राप्त होते हैं, त्यों-ही-त्यों तृष्णाका दायरा भी बढ़ता ही जाता है। भोग भोगनेकी शक्ति चाहे नष्ट हो जाय, परंतु तृष्णा नहीं नष्ट होती। तृष्णा बडे़-से-बडे़ धनवान्, ऐश्वर्यवान‍्को भी सदा दरिद्र बनाये रखती है; उसमें कभी जीर्णता नहीं आती, उसका तारुण्य सदा ही बना रहता है।

याद रखो—जिसका मन प्रत्येक परिस्थितिमें संतुष्ट है, वही परम सुखी है। वस्तुत: संतोष ही वह परम धन है, जिसे पाकर मनुष्य सदा धनी बना रहता है; कोई भी अवस्था उसे दीन-दरिद्र नहीं बना सकती। संतोषसे प्राप्त होनेवाला जो महान् पद है, वह बडे़-से-बडे़ सम्राट्के पदसे भी ऊँचा और महान् है।

याद रखो—संतोषसम्पन्न पुरुष ही वास्तविक साधु है। घर छोड़नेपर भी जिसको संतोष नहीं है, वह कभी साधु नहीं हो सकता; वह तो दिन-रात असंतोषकी आगमें जलता रहता है। संतोष ही वह परम शीतल पदार्थ है, जो जलते जीवनको सुशीतल बना देता है। संतोष ही जीवनके अन्धकारसे अभिशप्त अंगोंको परमोज्ज्वल बनाता है।

याद रखो—जिसको संतोष नहीं है, उसकी वृत्ति कभी एकाग्र नहीं हो सकती; वह सदा ही क्षिप्त और चंचल बनी रहती है। असंतोष मनुष्यको चोर, ठग, डाकू और परहितहरण करनेवाला असुर बना देता है। असंतोषसे ही द्वेष, क्रोध, वैर और हिंसाको प्रोत्साहन मिलता है। शील, शान्ति, प्रेम, सेवा आदि सद‍्गुण असंतोषी मनुष्यके जीवनमें कभी नहीं आते। यदि इनमेंसे कोई कुछ क्षणोंके लिये आता है तो असंतोषकी आगसे झुलसकर नष्ट हो जाता है।

याद रखो—संतोष होता है जगत‍्की अनित्यता, दु:खमयता, असद्रूपताके निश्चयसे या श्रीभगवान‍्के मंगल-विधानपर परम विश्वास होनेपर ही। जगत‍्की कोई भी स्थिति वास्तवमें या तो मायामात्र है—कुछ है नहीं या विविध रसमयी भगवान‍्की लीला है। माया है तो असंतोषका कोई कारण नहीं है; लीला है तो प्रत्येक लीलामें लीलामयके मधुर-मंगल दर्शनका परमानन्द है। उसीमें चित्त रम जाता है।

याद रखो—जो लोग असंतोषकी आगमें जलते रहते हैं, वे ही दूसरोंके हृदयमें असंतोषकी आग सुलगाकर उन्हें संतप्त कर देते हैं। वे कहते हैं कि ‘असंतोषके बिना उन्नति नहीं होती। उन्नतिकामीको असंतोषी होना चाहिये।’ पर यह उनकी असंतोष-वृत्तिसे उदित विकृत बुद्धिका विपरीत दर्शनमात्र है। बुद्धि जब तमसाच्छन्न होकर विकृत हो जाती है, तब मनुष्यको सब विपरीत दिखायी देता है। इसलिये वह सहज ही बुरेको भला मानकर स्वयं उसीको ग्रहण करता है और वही दूसरोंको भी समझा देना चाहता है।

याद रखो—संतुष्ट मनवाले पुरुषके अंदरसे जो सहज ही एक आनन्दकी लहर बाहर निकलती रहती है; वह आस-पासके लोगोंको प्रभावित कर उन्हें भी आनन्द प्रदान करती है। संतोषी पुरुष ही शत्रु-मित्र, सुख-दु:ख, निन्दा-स्तुति आदि द्वन्द्वोंमें समभाव रखकर भगवान‍्का प्रिय भक्त हो सकता है और वही अपने शान्त जीवनके द्वारा भगवान‍्की यथार्थ पूजा कर सकता है।

याद रखो—अकर्मण्यता, आलस्य, प्रमाद आदिका नाम संतोष नहीं है। संतोषी पुरुष ही वस्तुत: व्यवस्थित चित्तसे सत्कर्म कर सकता है; क्योंकि उसका चित्त शान्त और उसकी बुद्धि शुद्ध, विवेकवती एवं यथार्थ निश्चय करनेवाली होती है।

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