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शान्ति-सुखकी प्राप्तिके साधन

याद रखो—जबतक चित्त अशान्त है, तबतक किसी भी परिस्थितिमें वास्तविक सुख नहीं हो सकता और जबतक सांसारिक भोगोंके प्रति आकर्षण है, उनको प्राप्त करनेकी कामना है, तबतक चित्त शान्त हो नहीं सकता। गीतामें भगवान‍्ने अर्जुनसे कहा—‘जो सारी कामनाओंको छोड़ चुका है, जो नि:स्पृह है, जिसकी किसी प्राणी-पदार्थ-परिस्थितिमें ममता नहीं है और जो अहंकारसे रहित है, वह शान्ति प्राप्त करता है।’ अथवा ‘जो सर्वयज्ञ-तपभोक्ता, सर्वलोकमहेश्वर (मुझ सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्)-को प्राणिमात्रका सुहृद् जानता है अर्थात् जो भगवान‍्के प्रत्येक विधानको मंगलमय अनुभव करके प्रत्येक परिस्थितिमें उनके सौहार्दको देखता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।’ अतएव जबतक भोगकामना है, तबतक चाहे जितनी भौतिक सम्पत्ति, समृद्धि, पद, अधिकार मिल जाय, उसे शान्ति मिल ही नहीं सकती। अग्निमें ईंधन-घी पड़नेपर उसके अधिकाधिक धधकनेकी भाँति उसकी कामनाकी अग्नि उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है और उसी अनुपातमें जलन या अशान्ति भी बढ़ती है।

याद रखो—यदि वास्तवमें मनुष्य सुख चाहता है तो उसे जहाँ सुख—वास्तविक सुख है, उस स्थानपर पहुँचना होगा। वह स्थान है—नित्य एकरस सुखस्वरूप आत्मा; और आत्मातक पहुँचनेके लिये शान्तिकी आवश्यकता है। अतएव शान्तिकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करना आवश्यक है। यह भी याद रखना चाहिये कि आत्मा अपना स्वरूप है, भोग प्रकृतिकी चीज है; इसलिये भोग-कामनाका त्याग, तज्जनित शान्ति और आत्माके स्वरूपकी उपलब्धि सहज है। पर मनुष्यकी बुद्धि तमसाच्छन्न हो गयी है, तमसे ढकी हुई बुद्धि पापको पुण्य, त्याज्यको ग्राह्य, अधर्मको धर्म बतलाती है और इससे मनुष्यका जीवन दुष्प्रवृत्तिमें लग जाता है। जहाँ तामसी दुर्बुद्धि और तामसी बुद्धिजनित-कामोपभोगपरायणतायुक्त आसुरी दुष्प्रवृत्ति हो जाती है, वहाँ मनुष्यके द्वारा सभी विपरीत कर्म होते हैं और उन नीच कर्मोंके अनुसार नीच संस्कार, उनसे मानसमें नीच प्रेरणा और नीच प्रेरणासे पुन: नीच कर्म बनते जाते हैं—और जीवन सर्वथा पापमय बनकर वह पतनके गर्तमें गिर जाता है तथा विविध भाँतिकी अवांछनीय विकृतियाँ और विपत्तियाँ उसके जीवनका स्वरूप बन जाती हैं। इससे बचनेकी चेष्टा करनी है।

याद रखो—इससे बचनेके लिये बचना होगा कुसंगसे। कुसंग केवल किसी पतित मनुष्यका ही नहीं होता; स्थान, वातावरण, साहित्य, खान-पान, रहन-सहन, कपड़े-लत्ते, व्यवहार-वाणिज्य आदि सभी कुसंग हो सकते हैं। जिस स्थानमें निवास करनेसे तामसिक बुद्धि बढ़ती हो, जिस वातावरणसे भोगवासना तथा पापवासना बढ़ती हो, जिन पुस्तकों-पत्रोंके पढ़नेसे वृत्तियाँ दूषित होती हों, जिस खान-पानसे मनमें तमोगुण बढ़ता हो, जिस रहन-सहनसे भगवान‍्के प्रति अश्रद्धा तथा भोगवासना बढ़ती हो, जिन वस्त्रोंके पहननेसे भोगासक्ति उत्पन्न होती और बढ़ती हो, जो व्यवहार-वाणिज्य या आजीविकाका साधन चोरी, हिंसाकी प्रवृत्ति तथा दूसरोंका अहित करनेवाला हो एवं जो कुछ भी देखने-सुनने, बातचीत करनेके विषय-भोगमें रुचि-आसक्ति और भगवान‍्में अरुचि पैदा करनेवाले हों, वे सभी कुसंग हैं; उनका जितना शीघ्र, जितने अंशमें त्याग किया जाय, कर देना आवश्यक है। उसके बदले सत्साहित्यका अध्ययन, सदाचारका पालन करना और शुद्ध खान-पान-वस्त्र एवं शुद्ध व्यवसाय-वाणिज्यको अपनाना चाहिये।

याद रखो—शान्ति-सुखके लिये शुद्ध कामना, शुद्ध क्रिया, शुद्ध विचार, शुद्ध इच्छा, शुद्ध दर्शन, शुद्ध श्रवण तथा शुद्ध कथन आवश्यक है। शुद्ध वही है, जिसको अपनानेसे मन-इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त हो, प्राणिमात्रपर दया हो, मन-तन-वचनसे किसीकी हिंसा न हो, चोरी-ठगी न हो, दूसरेके हकपर मन न चले, भगवान‍्में मन लगे, भगवच्चरणोंमें राग हो, भोगोंमें वैराग्य हो और सबमें भगवान् समझकर सबको सुख पहुँचाने, सबकी सेवा करने तथा सबका हित करनेकी प्रवृत्ति एवं उत्साह हो।

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