शाश्वत शान्ति केवल भगवान्से ही प्राप्त हो सकती है
याद रखो—प्रकृतिजनित सत्त्व-रज-तम—तीनों गुणोंमें और तीनों गुणोंवाले प्राणी, पदार्थ तथा परिस्थितिमें कभी शान्ति नहीं है। इनमें नित्य चंचलता है; क्योंकि ये सभी परिवर्तनशील तथा अनित्य हैं—क्षण-क्षणमें बदल रहे हैं, नित्य गतिमान् हैं, फिर इनमें शान्ति कहाँसे आती? अतएव इनसे शान्तिकी आशा रखना सर्वथा व्यर्थ है।
याद रखो—तमोगुण और रजोगुणकी अपेक्षा सत्त्वगुणमें कुछ शान्ति दिखायी देती है; पर सत्त्वगुण भी न तो कभी अकेला रह सकता है और न उसकी वृद्धि ही स्थायी रह सकती है; क्योंकि प्रकृतिका सभी कुछ परिवर्तनशील है। अतएव उससे भी शान्ति नहीं मिल सकती।
याद रखो—प्रकृतिके किसी भी प्राणी, किसी भी पदार्थ तथा किसी भी परिस्थितिमें शान्ति नहीं है। उनमें कहीं कुछ जो शान्ति दिखायी देती है, वह उन प्राणी-पदार्थोंमें नहीं है; वह है आत्मामें। किसी काम्य वस्तुके प्राप्त होनेपर एक बार चित्तकी वृत्ति कुछ स्थिर होती है, तब उसमें आत्माकी सहज शान्तिकी छाया आती है। हम उसीको भूलसे उन प्राणी-पदार्थोंसे मिली मान लेते हैं, पर वह शान्ति भी उतनी ही देर ठहरती है, जितनी देरतक दूसरी कामना नहीं उत्पन्न होती। कामना आयी कि शान्ति गयी।
याद रखो—किसी भी कामनाकी पूर्तिसे कामना मिटती नहीं, वरं बढ़ती है, वैसे ही जैसे अग्निमें ईंधन तथा घृत पड़नेपर वह और बढ़ जाती है। प्रकृतिकी कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो पूर्ण हो। जितनी विशाल वस्तु होती है, उसमें उतनी अधिक अपूर्णताका बोध होता है, अभाव दिखायी देता है। जहाँ अभाव है, वहीं कामना है और जहाँ कामना है, वहीं अशान्ति है; अशान्तिमें सुख कहाँ? ‘अशान्तस्य कुत: सुखम्’। इसलिये किसी भी सांसारिक स्थितिमें—चाहे वह कितनी ही समुन्नत और धन-जन-ऐश्वर्य तथा पदाधिकार, मान-कीर्तिसे सम्पन्न हो—कभी स्थिर तथा सच्ची शान्ति नहीं मिल सकती। वरं उसमें अधिक अभावकी अनुभूतिसे चिन्ता तथा कामना, विनाशका भय, उस स्थितिसे ईर्ष्या-द्वेष करनेवालोंसे संघर्ष आदि अनेक नये-नये कारणोंसे अशान्ति और भी बढ़ जाती है। अतएव हमें यदि शान्ति चाहिये तो सभी कामनाओं तथा स्पृहाओंका और ममता-अहंताका त्याग करनेके लिये हम प्रयत्नशील होवें। शान्ति-प्राप्तिका एक सरल सुन्दर साधन है—सर्वलोकमहेश्वर, सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ भगवान्के सौहार्दपर अटल विश्वास।
याद रखो—भगवान्के सौहार्दपर विश्वास होनेपर यह स्पष्ट अनुभव होगा कि हमारे लिये भगवान्ने जो कुछ भी रचा है, जो कुछ भी हमें (जागतिक दृष्टिसे अनुकूल या प्रतिकूल, सुख या दु:ख, वांछनीय या अवांछनीय) प्राप्त करानेका विधान है, वह निश्चय ही परम मंगलमय है। भगवान् हमारे सुहृद् हैं, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् हैं, अतएव वे निश्चय ही हमारा जिसमें वास्तविक परम कल्याण होगा, वही विधान करेंगे।
याद रखो—शान्ति वास्तवमें वही है, जो शाश्वत है—नित्य है। ऐसी शाश्वत शान्ति नित्य—शाश्वत तत्त्वसे ही मिल सकती है। वह नित्य शाश्वत परम तत्त्व है—एकमात्र श्रीभगवान्। अतएव जिनको शान्ति चाहिये, वे उसके लिये किसी भी मानव-प्राणीसे, किसी भी पदार्थसे, किसी भी परिस्थितिसे कोई भी आशा न रखें। जो स्वयं विक्षुब्ध, चंचल और अशान्त है, उससे हमें शान्ति कैसे मिल सकती है? शान्ति—नित्य शाश्वत यथार्थ शान्तिके लिये केवल भगवान्से ही आशा रखनी चाहिये एवं भगवान्से ही प्रार्थना करनी चाहिये।