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आज्ञापालनकी महिमा

भगवान‍् श्रीकृष्णने सांदीपनि ऋषिसे विद्याध्ययन किया था। सांदीपनि उनके विद्यागुरु थे। वे सांदीपनि ऋषि जब बाल्यावस्थामें अपने गुरुके पास पढ़ते थे, तब उन्होंने गुरुकी बहुत सेवा की थी। सभी विद्यार्थियोंमें सांदीपनिकी गुरुभक्ति विशेष थी। एक बार गुरुके मनमें सांदीपनिकी परीक्षा लेनेकी आयी। एक दिन विद्यार्थी बाहर गये हुए थे। गुरुका एक बालक था, जो वहाँ खेल रहा था। जब गुरुने विद्यार्थियोंको आते हुए देखा, तब उन्होंने अपने बालककी ओर संकेत करते हुए सांदीपनिसे कहा कि इसको कुएँमें डाल दे। सांदीपनिने बालकको उठाकर कुएँमें डाल दिया! विद्यार्थियोंने देखा तो वे दौड़ते हुए आये कि अरे! इसने गुरुजीके बालकको कुएँमें डाल दिया। कुएँका जल नजदीक ही था। विद्यार्थी उसमें कूदे और बालकको उठाकर ले आये। अब विद्यार्थी सांदीपनिको मारने लगे। सांदीपनिने उनकी मार सह ली, पर यह नहीं बोले कि गुरुजीने कहा था। गुरुजीने विद्यार्थियोंको रोका कि इसको मारो मत, तुम्हारा गुरुभाई है।

एक दिनकी बात है, विद्यार्थी कहींसे आ रहे थे। उनको आते देखकर गुरुजीने सांदीपनिसे कहा कि इस छप्परको आग लगा दे। सांदीपनिने चट आग लगा दी! विद्यार्थियोंने दौड़कर आग बुझायी और सांदीपनिको मारने लगे कि गुरुजीके घरको जलाता है! सांदीपनि कुछ बोले नहीं, चुपचाप मार सहते रहे। गुरुजीने विद्यार्थियोंको रोका।

सांदीपनि बहुत विशेष बुद्धिमान् भी नहीं थे और जड़-बुद्धि भी नहीं थे, मध्यम बुद्धिके थे। परन्तु उनमें यह विशेषता थी कि गुरुजी जो आज्ञा देते थे, वे चट वह काम कर देते थे। श्रेष्ठ पुरुषोंकी सबसे बड़ी सेवा है—उनकी आज्ञाका पालन करना—‘अग्या सम न सुसाहिब सेवा’(मानस, अयोध्या० ३०१। २)। आज्ञाका पालन करनेसे उनकी शक्ति हमारेमें आ जाती है। परन्तु वह शक्ति तब आती है, जब उनकी आज्ञाके अनुसार तत्काल काम कर दे। आज्ञा-पालनमें जितनी देर करेंगे, उतनी ही शक्ति कम होती जायगी। इसलिये सांदीपनि अपने गुरुकी आज्ञा (वचन)-को नीचे नहीं गिरने देते थे अर्थात् उसपर विचार किये बिना तत्काल वह काम कर देते थे—‘आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया’ (रघु० १४। ४६)।

जब विद्याध्ययन समाप्त हुआ, तब विद्यार्थी अपने-अपने घर चले गये। उनमेंसे कई अच्छे पण्डित बन गये। सांदीपनि भी चले गये। पीछे एक दिन गुरु महाराज बहुत बीमार पड़ गये। उनकी बीमारीका समाचार सुनकर शिष्यलोग उनके दर्शनके लिये आये। गुरुजीके शरीर छोड़नेका समय आया तो उन्होंने अपने शिष्योंको वस्तुएँ दीं। उन्होंने किसीको पंचपात्र दे दिया, किसीको आचमनी दे दी, किसीको पवित्री दे दी, किसीको आसन दे दिया, किसीको माला दे दी, किसीको गोमुखी दे दी, आदि-आदि। शिष्योंने उन वस्तुओंको बड़े आदरसे लिया कि गुरु महाराजकी प्रसादी है! जब सांदीपनि गुरुके सामने आये तो गुरुजी चुप हो गये, फिर बोले कि बेटा! तेरेको क्या दूँ? तेरेको देनेयोग्य कोई वस्तु मेरे पास नहीं है! तेरी जो गुरुभक्ति है, उसके समान मेरे पास कुछ नहीं है! परन्तु मैं तेरेको आशीर्वाद देता हूँ कि त्रिलोकीनाथ भगवान‍् तेरे शिष्य बनेंगे! बादमें इन्हीं सांदीपनिके पास आकर भगवान‍् श्रीकृष्ण इनके शिष्य बने!

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