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विलक्षण साधना

शबरी भगवान‍्की परम भक्ता थी। पहले वह ‘शबर’ जातिकी एक भोली-भाली लड़की थी। शबर-जातिके लोग कुरूप होते थे। परन्तु शबरी इतनी कुरूप थी कि शबर-जातिके लोग भी उसको स्वीकार नहीं करते थे! माँ-बापको बड़ी चिन्ता होने लगी कि लड़कीका विवाह कहाँ करें! ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आखिर उनको शबर-जातिका एक लड़का मिल गया। माँ-बापने रातमें शबरीका विवाह करके उसको रातमें ही विदा कर दिया। लड़केको कह दिया कि भैया, तुम रात-रातमें ही अपनी स्त्रीको ले जाओ। लड़का उसको लेकर रवाना हो गया। आगे-आगे लड़का चल रहा था, पीछे-पीछे शबरी चल रही थी। चलते-चलते वे दण्डकवनमें आ पहुँचे। वहाँ सूर्योदय हो गया। लड़केके मनमें आया कि देखूँ तो सही, मेरी स्त्री कैसी है! उसने पीछे मुड़कर शबरीको देखा तो उसकी कुरूपता देखकर वह डरके मारे वहाँसे भाग गया कि यह तो कोई डाकण है, मेरेको खा जायगी! अब शबरी बेचारी दण्डकवनमें अकेली रह गयी। वह पीहरसे तो आ गयी और ससुरालका पता नहीं। अब वह कहाँ जाय!

दण्डकवनमें रहनेवाले ऋषि शबरीको अछूत मानकर उसका तिरस्कार करने लगे। वहाँ ‘मतंग’ नामके एक वृद्ध ऋषि रहते थे, उन्होंने शबरीको देखा तो उसपर दया आ गयी। उन्होंने कृपा करके उसको अपने आश्रममें शरण दे दी। दूसरे ऋषियोंने इसका बड़ा विरोध किया कि आपने अछूत जातिकी स्त्रीको अपने पास रख लिया! परन्तु मतंग ऋषिने उनकी बात मानी नहीं। उन्होंने बड़े स्नेहपूर्वक शबरीसे कहा कि बेटा! तुम डरो मत, घबराओ मत, मेरे पास रह जाओ। जैसे कोई माँ-बापके पास रहे, ऐसे शबरी खुशीसे वहाँ रहने लग गयी।

शबरीको सेवा करनेमें बड़ा आनन्द आता था। सब ऋषि-मुनि शबरीका तिरस्कार किया करते थे, इसलिये वह छिपकर, डरते-डरते उनकी सेवा किया करती थी। रातमें जब सब सो जाते, तब जिस रास्तेसे ऋषिलोग स्नानके लिये पम्पा सरोवर जाते थे, वह रास्ता बुहारकर साफ कर देती। जहाँ कंकड़ होते, वहाँ बालू बिछा देती। ऋषियोंके लिये ईंधन लाकर रख देती। अगर कोई देख लेता तो वहाँसे भाग जाती। वह डरती थी कि अगर मेरी छाया ऋषियोंपर पड़ जायगी तो वे अशुद्ध हो जायँगे। इस प्रकार ऋषि-मुनियोंकी सेवामें उसका समय बीतता गया। आखिर एक दिन वह समय आ पहुँचा, जो सबके लिये अनिवार्य है! मतंग ऋषिका शरीर छूटनेका समय आ गया। जैसे माँ-बापके मरते समय बालक रोता है, ऐसे शबरी भी रोने लग गयी! रोनेके सिवाय वह और करे क्या! हाथकी बात थी नहीं! मतंग ऋषिने कहा कि बेटा! तुम चिन्ता मत करो। एक दिन तेरे पास भगवान‍् राम आयेंगे! मतंग ऋषि शरीर छोड़कर चले गये।

अब शबरी भगवान‍् रामके आनेकी प्रतीक्षा करने लगी। प्रतीक्षा बहुत ऊँची साधना है। इसमें भगवान‍्का विशेष चिन्तन होता है। भगवान‍्का भजन-ध्यान करते हैं तो वह इतना सजीव साधन नहीं होता, निर्जीव-सा होता है। परन्तु प्रतीक्षामें सजीव साधना होती है। रातमें किसी जानवरके चलनेसे पत्तोंकी खड़खड़ाहट भी होती तो शबरी बाहर आकर देखती कि कहीं राम तो नहीं आ गये! वह प्रतिदिन कुटियाके बाहर पुष्प बिछाती और तरह-तरहके फल लाकर रखती। फलोंमें भी चखकर बढ़िया-बढ़िया फल रामजीके लिये रखती। रामजी नहीं आते तो दूसरे दिन फिर ताजे फल लाकर रखती। उसके मनमें बड़ा उत्साह था कि रामजी आयेंगे तो उनको भोजन कराऊँगी।

प्रतीक्षा करते-करते एक दिन शबरीकी साधना पूर्ण हो गयी! मुनिके वचन सत्य हो गये! भगवान‍् राम शबरीकी कुटियामें पधारे—

सबरी देखि राम गृहँ आए।
मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥
(मानस, अरण्य० ३४। ३)

दूसरे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि प्रार्थना करते हैं कि महाराज! हमारी कुटियामें पधारो। पर भगवान‍् कहते हैं कि नहीं, हम तो शबरीकी कुटियामें जायँगे!

मोटा मोटा मुनिना आश्रम मुकीने,
सबरी ने घेर जाय छे रे,
वालो भगती तणे वश थाय छे रे।

जैसे शबरीके हृदयमें भगवान‍्से मिलनेकी उत्कण्ठा लगी है, ऐसे ही भगवान‍्के मनमें शबरीसे मिलनेकी उत्कण्ठा लगी है! भगवान‍्का स्वभाव है कि जो उनको जैसे भजता है, वे भी उसको वैसे ही भजते हैं—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’(गीता ४। ११)।

शबरीके आनन्दकी सीमा नहीं रही! वह भगवान‍्के चरणोंमें लिपट गयी। जल लाकर उसने भगवान‍्के चरण धोये। फिर आसन बिछाकर उनको बैठाया। फल लाकर भगवान‍्के सामने रखे और प्रेमपूर्वक उनको खिलाने लगी। शबरी पुराने जमानेकी लम्बी स्त्री थी। रामजी बालककी तरह छोटे थे। जैसे माँ बालकको भोजन कराये, ऐसे शबरी प्यारसे रामजीको फल खिलाने लगी और रामजी भी बड़े प्यारसे उनको खाने लगे—

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥
(मानस, अरण्य० ३४)

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