चार साधु और चोर
चार साधु थे। वे शहरके पास एक जंगलमें रहते थे और भगवान्का भजन-स्मरण करते थे। उन चारों साधुओंकी अपनी अलग-अलग एक निष्ठा थी। एक दिन वहाँके राजाने अपनी स्त्रीसे कहा कि हमें अपने लड़केको अच्छा सन्त बनाना है, फिर वह चाहे राज्य करे, चाहे साधु बन जाय। रानी बोली कि महाराज! जो सन्त बनना चाहता है, वही सन्त बन सकता है, दूसरेके बनानेसे कैसे बन जायगा? आपका और मेरा उद्योग थोड़े ही काम करेगा? राजाने कहा कि इसका एक उपाय है—सत्संग! ‘सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥ ’(मानस, बाल० ३।५)। रानी बोली कि ऐसा कोई अच्छा सन्त है, जिसके पास लड़केको भेजें? राजा बोला कि यहाँ पासमें ही जंगलमें चार अच्छे सन्त रहते हैं। उनके पास लड़केको भेज देते हैं। इस प्रकार राजा और रानी बातें कर रहे थे। रात्रिका समय था। दैवयोगसे एक चोर, जो चोरी करनेके उद्देश्यसे वहाँ आया था, छिपकर उनकी बातें सुन रहा था। उस चोरके मनमें आया कि चोरी करनेसे तो मैं फँस भी सकता हूँ, पर साधु बन जाऊँ तो काम बन जायगा! राजकुँअर आयेगा और मेरा चेला बन जायगा, फिर चोरी करनेकी क्या जरूरत है?
चोरने गेरुआ वस्त्र पहन लिये और जंगलमें चला गया। उसके मनमें आया कि कोई पूछेगा तो मैं क्या उपदेश दूँगा! ऐसा सोचकर वह चार सन्तोंमेंसे पहले सन्तके पास गया और पूछा कि महाराज! कल्याण कैसे हो? सन्तने कहा—भाई, किसीका जी मत दुखाओ, किसीको दु:ख मत दो—‘दिल किसीका मत दु:खा, यह दिल खुदाका नूर है’! चोर बोला—और महाराज! सन्त बोले—औरकी जरूरत नहीं, इस एक बातसे ही काम बन जायगा। चोर दूसरे सन्तके पास पहुँचा और बोला कि महाराज! मैं कल्याण चाहता हूँ, कोई उपाय बताओ। सन्त बोले—कभी किंचिन्मात्र भी झूठ नहीं बोलना, सदा सत्य ही बोलना, चाहे गला क्यों न कट जाय! जैसा देखा, जैसा सुना और जैसा समझा, ठीक वैसा-का-वैसा कह देना—
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप॥
चोर बोला—और कोई बात? सन्त बोले—औरकी जरूरत नहीं है। अब वह चोर तीसरे सन्तके पास गया और बोला कि महाराज! मेरा कल्याण कैसे हो? सन्त बोले—सीधी-सादी बात है, रात-दिन राम-राम करो—
जुगति बताओ ‘जालजी’, राम मिलन की बात।
मिल जासी ओ ‘मालजी’ राम रटो दिन रात॥
चोर बोला—और कोई उपाय? सन्त बोले—और उपायकी जरूरत नहीं है। अब वह चौथे सन्तके पास पहुँचा और बोला कि महाराज! कल्याण कैसे हो? सन्त बोले—भाई! एक भगवान्के शरण हो जाओ। मनमें यह बात अटल रहे कि मैं तो केवल भगवान्का हूँ। जैसे विवाह होनेके बाद लड़कीके मनमें यह बात दृढ़ हो जाती है कि मैं कुँआरी नहीं हूँ, मेरा विवाह हो गया है, ऐसे ही मनमें यह बात दृढ़ हो जाय कि मैं भगवान्का हो गया, अब मैं और किसीका नहीं हो सकता—‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’! चोर बोला—और कोई बात? सन्त बोले—औरकी जरूरत ही नहीं, इतना ही काम है।
चोरने चारों सन्तोंसे चार बातें सीख लीं और आगे जाकर बैठ गया। अब राजा आया। वह क्रमश: चारों सन्तोंके पास गया। चारोंने एक-एक बात कह दी। राजाने देखा कि आगे पाँचवाँ साधु भी बैठा है! राजा उसके पास भी गया और प्रार्थना की कि महाराज! कृपा करके कल्याणकी बात बतायें। वह साधुवेषधारी चोर चुपचाप ध्यानमें बैठा रहा, कुछ बोला नहीं। राजाने ज्यादा प्रार्थना की तो वह बोला—मैं जैसा बताऊँगा, वैसा करोगे? राजाने कहा कि हाँ महाराज! वैसा ही करूँगा। वह बोला—किसीका जी मत दुखाओ। राजा बोला—और कोई बात? वह बोला—सदा सत्य बोलो। राजा बोला—दूसरी कोई बात? वह बोला—भगवान्के नामका जप करो। राजा बोला—और कुछ बताइये! वह बोला—भगवान्के शरण हो जाओ। राजा बोला—महाराज! और कोई बात? वह बोला—सन्त जैसा कहे, वैसा कर दो। राजाने मनमें विचार किया कि यह सन्त ज्यादा ऊँचा है! अन्य सन्तोंने तो एक-एक बात कही, पर इन्होंने पाँच बातें कह दीं! राजा बड़े सरल स्वभावका था। उसको मालूम नहीं था कि सन्तकी पहचान इस तरह नहीं होती। राजा लौटकर महलमें आ गया।
रात होनेपर वह चोर फिर छिपकर महलमें आया। जब राजा रानीके पास गया, तब वह चोर दरवाजेके पीछे छिपकर उनकी बातें सुनने लगा। रानीने पूछा कि क्या बात हुई? राजाने कहा कि मैं जंगलमें सन्तोंके दर्शन करके आया हूँ। मैं तो चार ही सन्त समझता था, पर वहाँ पाँच सन्त बैठे थे। रानी बोली—वहाँ जाकर आपने क्या कहा? राजा बोला—मैंने भगवत्प्राप्तिकी बात पूछी तो उनमेंसे एक सन्तने कहा कि किसीका जी मत दुखाओ, दूसरेने कहा कि सदा सत्य बोलो, तीसरेने कहा कि नाम-जप करो, चौथेने कहा कि भगवान्के शरण हो जाओ। परन्तु पाँचवें सन्तने उन चारों सन्तोंकी चार बातें भी बतायीं और साथमें पाँचवीं बात यह बतायी कि सन्तकी आज्ञाका पालन करो। राजा और रानी—दोनों सच्चे और सरल स्वभावके थे। उन्होंने विचार किया कि वह पाँचवाँ सन्त ठीक है, अपने लड़केको उसीके पास भेजो। उनकी बातोंका चोरपर बड़ा असर पड़ा कि अरे! मैंने तो नकली बात कही, उसपर भी राजाने श्रद्धा कर ली। अगर सच्ची बात कहूँ तो कितनी मौज हो जाय! राजाके सद्भावके कारण चोरका हृदय बदल गया! वह सच्चा साधु हो गया और जंगलमें निकल गया। उसने विचार किया कि चार बातोंका तो मैं ठीक पालन करूँगा, पर पाँचवीं बातका पालन तब हो, जब कोई अच्छा और सच्चा सन्त मिले। कोई ऐसा भगवत्प्राप्त सन्त मिले, जिनकी आज्ञाका मैं पालन करूँ। वह सन्तको ढूँढ़नेमें लग गया।
पहले चोर होनेसे वह चालाक तो था ही, इसलिये हरेक साधुपर उसका विश्वास नहीं बैठता था। वह कई साधुओंके पास गया, पर किसीपर उसका विश्वास नहीं बैठा। अब अच्छे सन्तको पानेके लिये उसकी लगन लग गयी। उसके मनमें यह बात थी कि जिसमें मेरा चित्त खिंच जाय, मेरा विश्वास हो जाय, उसीको गुरु बनाऊँगा। भगवान्ने उसकी सच्ची लगन देखी तो वे सन्त बनकर उसके सामने आ गये। उनको देखते ही उसपर असर पड़ा और वह बोला कि महाराज! मैं आपके शरण हूँ, मेरेको दीक्षा दीजिये। आप जैसा कहेंगे, मैं वैसा ही करूँगा। सन्तरूपमें भगवान् बोले—जैसा मैं कहूँगा, वैसा करेगा क्या? सच्ची बात कहता है न? वह बोला—हाँ महाराज! बिलकुल सच्ची बात कहता हूँ। भगवान् बोले—तो फिर पहले एक काम करो, पीछे तुम्हें मन्त्र देंगे। तुम यह काम करो कि जो किसीका जी नहीं दुखाता, उसका सिर काटकर लाओ, और जो सत्य बोलता है, उसका सिर काटकर लाओ, और जो नाम-जप करता है, उसका सिर काटकर लाओ, और जो भगवान्के शरण है, उसका सिर काटकर लाओ। ये चार सिर काटकर लाओ, तब तुम्हें दीक्षा देंगे। उसने सोचा कि ये चारों तो एक ही जगह बैठे हैं, काम आसानीसे बन जायगा! वह तलवार लेकर भागा-भागा गया, पर रास्तेमें ही विचार आया कि मैंने यह नियम लिया है कि किसीका जी नहीं दुखाऊँगा, पर जी दुखाना तो दूर रहा, मैं तो गला ही काटने जा रहा हूँ! उसको विचार हुआ कि यह काम मेरेसे नहीं होगा। उसमें सद्बुद्धि पैदा हो गयी। वह भागा-भागा पीछे आया। भगवान्ने पूछा—ले आया क्या? वह बोला—हाँ, ले आया हूँ। भगवान् बोले—कहाँ है? वह बोला—मेरे एक सिरमें चारों बातें हैं! मैं कभी किसीका जी नहीं दुखाता, सदा सत्य बोलता हूँ, नाम-जप करता हूँ और भगवान्के शरण हूँ। ये चारों बातें मेरेमें हैं; अत: मैं अपना ही सिर काटकर आपको देता हूँ। भगवान्ने कहा—बस, अब सिर काटनेकी जरूरत नहीं, मैं तेरेको दीक्षा देता हूँ! भगवान्ने उसको दीक्षा दी और वह अच्छा सन्त बन गया!
इस प्रकार चालाकीसे पाँच बातें धारण करनेसे भी चोरको भगवान् मिल गये और वह सन्त बन गया। अगर कोई सच्चे हृदयसे पाँचों बातोंको धारण कर ले तो फिर कहना ही क्या है!