दूसरेका कल्याण कौन कर सकता है?
एक राजा था। उसने सुना कि राजा परीक्षित् ने भागवतकी कथा सुनी तो उनका कल्याण हो गया। राजाके मनमें आया कि अगर मैं भी भागवतकी कथा सुन लूँ तो मेरा भी कल्याण हो जायगा। ऐसा विचार करके राजाने एक पण्डितजीसे बात की। पण्डितजी भागवत सुनानेके लिये तैयार हो गये। निश्चित समयपर भागवत-कथा आरम्भ हुई। सात दिन बीतनेपर कथा समाप्त हुई।
दूसरे दिन राजाने पण्डितजीको बुलाया और कहा कि पण्डितजी! न तो आपने भागवत सुनानेमें कोई कमी रखी, न मैंने सुननेमें कोई कमी रखी, फिर भागवत सुननेपर कोई फर्क तो पड़ा नहीं, बात क्या है? पण्डितजीने कहा कि महाराज! इसका उत्तर तो मेरे गुरुजी ही दे सकते हैं। राजाने कहा कि आप अपने गुरुजीको आदरपूर्वक यहाँ लेकर आयें, हम उनसे पूछेंगे। पण्डितजी अपने गुरुजीको लेकर राजाके पास आये। राजाने अपनी शंका गुरुजीके सामने रखी कि भागवत सुननेपर भी मेरा कल्याण क्यों नहीं हुआ? मनकी हलचल क्यों नहीं मिटी? गुरुजीने राजासे कहा कि थोड़ी देरके लिये मेरेको अपना अधिकार दे दो। राजाने उनकी बात स्वीकार कर ली। गुरुजीने आदेश दिया कि राजा और पण्डितजी—दोनोंको बाँध दो। राजपुरुषोंने दोनोंको बाँध दिया। अब गुरुजीने पण्डितजीसे कहा कि तुम राजाको खोल दो। पण्डितजी बोले कि मैं खुद बँधा हुआ हूँ, फिर राजाको कैसे खोल सकता हूँ! गुरुजीने राजासे कहा कि तुम पण्डितजीको खोल दो। राजाने भी यही उत्तर दिया कि मैं खुद बँधा हूँ, पण्डितजीको कैसे खोलूँ! गुरुजीने कहा कि महाराज! मैंने आपके प्रश्नका उत्तर दे दिया! राजाने कहा—मैं समझा नहीं! गुरुजी बोले—‘जैसे खुद बँधा हुआ आदमी दूसरेको नहीं खोल सकता, ऐसे ही जो खुद बन्धनमें पड़ा है, वह दूसरेको बन्धन-मुक्त कैसे कर सकता है? दूसरेका कल्याण कैसे कर सकता है?’ अनुभवी पुरुषसे जो लाभ होता है, वैसा लाभ दूसरे पुरुषसे नहीं होता। इसलिये अनुभवी पुरुषकी वाणीके अनुसार ही अपना जीवन बनाना चाहिये।