महलमें कमी
एक राजा था। वह एक सन्तके पास जाया करता और उनका सत्संग किया करता था। उस राजाने अपने लिये एक महल बनाया। पहले उसके कई महल थे, पर अब ऐसा महल बनाया, जिसमें आरामकी सब चीजें हों और उसमें ज्यादा ठाट-बाटसे रहें। राजाने सन्तसे कहा कि महाराज! एक दिन आप चलो, हमारी कुटिया पवित्र हो जाय! सन्त उसको टालते गये। राजाने बहुत बार कहा तो एक दिन सन्त बोले कि अच्छा भाई, चलो।
राजाने सन्तको महल दिखाना आरम्भ किया कि यह हमारे रहनेकी जगह है, यह हमारे पंचायतीकी जगह है, यह भोजनकी जगह है, यह शौच-स्नानकी जगह है, आदि-आदि। सन्त चुपचाप देखते रहे, कुछ बोले नहीं। अगर वाह-वाह करते हैं तो हिंसा लगती है। कारण कि मकान बनानेमें बड़ी हिंसा होती है! बहुत-से जीव मरते हैं। चूहे, साँप, गिलहरी आदिके रहने और चलने-फिरनेमें आड़ लग जाती है; क्योंकि जितने हिस्सेमें मकान बना है, उतने हिस्सेमें वे जा नहीं सकते, स्वतन्त्रतासे घूम नहीं सकते। पहले उतने हिस्सेमें सब जीवोंका हक लगता था, पर अब केवल एकका ही हक लगता है। सन्त कुछ बोले नहीं तो राजाने समझा कि महाराजको मकान पसन्द नहीं आया। राजालोग चतुर होते हैं। राजाने पूछ लिया कि महाराज! महलमें कमी क्या है? सन्त बोले कि कमी तो इसमें बड़ी भारी है! राजाने विचार किया कि बड़े-बड़े कुशल कारीगरोंने महल बनाया है। उन्होंने कोई कमी बाकी नहीं छोड़ी। जहाँ कमी दीखी, उसको पूरा कर दिया। परन्तु बाबाजी कहते हैं कि कमी है, और वह भी मामूली नहीं है, बड़ी भारी कमी है! राजाको बड़ा आश्चर्य आया और पूछा कि क्या बहुत बड़ी कमी है? सन्त बोले कि हाँ, बहुत बड़ी कमी है! राजाने पूछा कि महाराज! क्या कमी है? सन्त बोले कि यह जो दरवाजा रख दिया है न, यह कमी है! राजा बोला कि महाराज! दरवाजेके बिना महल क्या काम आये? सन्त बोले कि तुमने यह महल क्यों बनवाया है? राजाने कहा कि महाराज! मैंने अपने रहनेके लिये बनाया है। सन्त बोले कि राजन्! तुमने तो रहनेके लिये बनाया है, पर एक दिन लोग उठाकर ले जायँगे! इससे ज्यादा कमी और क्या होगी, बताओ? बनाया तो है रहनेके लिये, पर लोग उठाकर बाहर ले जायँगे, रहने देंगे नहीं! इसलिये अगर रहना ही हो तो यह दरवाजा नहीं होना चाहिये, बाहर निकलनेकी जगह नहीं होनी चाहिये।
तात्पर्य है कि यह अपना असली घर नहीं है। एक दिन सब कुछ छोड़कर यहाँसे जाना पड़ेगा। हमारा असली घर तो वह है, जहाँ पहुँचनेपर फिर लौटकर आना ही न पड़े—‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’(गीता १५।६)।